“” दिल का मर्म या पीड़ा का दंश “”
जुल्मों सितम की इंतहा हो तो,
बाजुओं को खोलना ही पड़ता है ;
जब बढ़ जाये मर्ज़ ऐ दुश्वारी तो,
उसका इलाज खोजना ही पड़ता है ;
जब देना हो जुबान ऐ तरज़ीहत तो,
हर बात कहने से पहले उसे कांटे पर तोलना ही पड़ता है ;
मुख्लिस, मुजलूमों के हक़ की हो बात तो,
हुक्मरानों के समक्ष बेखौफ होकर बोलना भी पड़ता है ;
आंच न आ जाये असूलों पर अपने तो,
किसी विचार या वस्तु तो कभी हमराज को भी छोड़ना ही पड़ता है ;
बन न जाये घाव के फाले दर्द ऐ नासूर तो,
उनको वक़्त रहते ही फोड़ना भी पड़ता है ;
जब तक बन जाये अपनों की किस्मत तो,
मेहनत की भट्टी में खुद को झोंकना ही पड़ता है ;
जब कभी हो धुँधले या मृगतृष्णा बने मंजिल के रास्ते,
तो बीच रास्ते में वापसी लौटना भी समझदारी जान पड़ता है ;
फैल ना पाये मवालियों की दहशत इस जहाँ में,
कभी कभी भौकाल करना तो कभी दबंग बनना ही पड़ता है ;
जब पड़ न जाये संकट में ही मानवता हमारी,
तो सेवाकर्मियों द्वारा रक्षा हेतु नींद बीच मे ही छोड़ दौड़ना भी पड़ता है ;
रहें हिफाज़त में सरहदें हमारी तो,
जांबाज द्वारा दुश्मन की गोली को अमन की खातिर सीने पर झेलना ही पड़ता है;
भाईचारे में जब दिल रख दिया जाये उसके कदमों में तो,
शर्मसार न कर दे वो रिश्तों को इसीलिए न चाहते हुए भी आंखों को कभी कभी फेरना ही पड़ता है।
“” प्रेमपूर्वक समर्पण लेने या देने में भाव अंतर्मन से स्वीकार्यता अत्यंत आवश्यक है। “”
मानस जिले सिंह
【 यथार्थवादी विचारक】
अनुयायी – मानस पँथ
उद्देश्य – समाज में शिक्षा, समानता व स्वावलंबन के प्रचार प्रसार में अपनी भूमिका निर्वहन करना।
👌 👌 👌 wow sir ji kya wichar hai aapke
लाजवाब🖋️🖋️🙏
बहुत ही बढ़िया गुरु जी
सुन्दर अभिव्यक्ति
thanks
Nice views
बहुत ही सुंदर संवेदनशील और मार्मिक विवेचना ।
thanks
सुंदर अभिव्यक्ति