Friday, March 31, 2023

“” मैं और मेरे समक्ष व्यक्तित्व की चाह “”

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“” Me and The Desire for Personality in front of Me “”
“” मैं और मेरे समक्ष व्यक्तित्व की चाहत “”

थोड़ा सा मुस्कुरा जो हमसे बतियाने लगे ,
कुछ ही दिनों में वो नजदीकियां भी बढ़ाने लगे ;

अपनेपन का एहसास था या वो छलावा ,
झूठा ही सही ऐतबार भी हम पर वो दिखाने लगे ;

जैसे तैसे विश्वास बनाने जो हम लगे ,
वो हर अदा से हमें और रिझाने में लगे ;

उम्मीद जो जताई उनसे ईमानदारी की हमने ,
व्यवहार को एक रिश्ते का नाम दिलाने में लगे ;

हमदर्द मान सुख दुख साझा की कवायद जो करने लगे ,
दोस्ती का हाथ समझ वो और भी इतराने लगे ;

सकूँ में जैसे ही आसमां को थोड़ा उस पर झुकाने लगे ,
अपनी फ़ितरत के मुताबिक कामयाबी का फिर वो जश्न मनाने लगे ;

रिश्ते में जो यकीं की तलाश जब हम करने जो लगे ,
वो बेवजह खुशनुमा अहसास करवाने में भी लगे ;

जब हम हकीकत में वही रंग भरने जो लगे ,
तो किसी न किसी बहाने से हर बार व्यस्त अपनेआप को बताने लगे ;

ज्यों ज्यों फिक्रमंद उनके लिए हम थोड़ा सा होने लगे ,
वे अब बेपरवाह भी नजर आने लगे ;

घिसक रहा था जो उन पर विश्वास हमारा ,
जब हमें गिरगिट की तरह रंग दिखाने में लगे ;

टूट गया आखिर जो विश्वास हमारा ,
दिल पर रखकर पैर उसी को ही ढूंढ़ने का बहाना जताने भी लगे ;

लगी दिल पर चोट को मलहम जो हम लगाने लगे ,
बेवकूफ बना मान वो मन्द मन्द ही मुस्कुराने लगे ;

मूर्ख मानू या बदनसीब उनको ,
लूट लिया मान जब वो इठलाने लगे ;

कमबख्त चोट तो खाई थी हमने ,
लुटेरों के भेष में वो भी नजर आने लगे ;

खुदा का शुक्र करूँ या शिकायत जो ,
झूठी दिललगी से हम भी मन बहलाने में लगे ;

मलाल ना रहा था मानस सब कुछ खोने का हमको ,
खोकर ही सही पर हर मौकापरस्तों के बीच दोस्तों की पहचान भी हम अब करने लगे ;

मानस जिले सिंह
【यथार्थवादी विचारक 】
अनुयायी – मानस पंथ
उद्देश्य – मानवीय मूल्यों की स्थापना में प्रकृति के नियमों को यथार्थ में प्रस्तुतीकरण में संकल्पबद्ध प्रयास करना।

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Sanjay Nimiwal
Sanjay
10 months ago

हर इंसान …

अपनी जुबान के पीछे छुपा हुआ है,

अगर उसे समझना है तो उसे बोलने दो ।।

ONKAR MAL Pareek
Member
10 months ago

बेवफा है ये दुनियां किसी का ऐतबार मत करना , हर पल देते हैं धोका किसी से प्यार मत करना , मिट जाओ बेशक तन्हा जीकर पर किसी के साथ का इन्तजार मत करना ।

SARLA JANGIR
SARLA JANGIR
15 days ago

आज मेरा ध्यान अपने आप पर केंद्रित हुआ । मैं अपने बारे में बहुत कुछ सोचने लगी । अंदर झांका तो, ‘मैं’ को पाया। कितना स्वाभिमान भरा हुआ है? कितना आत्मविश्वास ? ‘मैं’ बहुत विशाल शब्द है। लेकिन क्या सचमुच विशाल है । इसकी विशालता इस बात पर निर्भर करती है कि उस व्यक्ति की सोच क्या है ? उसने किस तरह के संसार ग्रहण किये हैं ? प्रभु ने भी सोच – समझकर बुद्धि का स्थान शिखर पर बनाया है। इसीलिए स्वाभिमान भी कभी-कभी अभिमान ,आत्मविश्वास अहंकार में परिणत हो जाता है । ‘मैं’  शब्द ही कुछ ऐसा ही है । ‘मैं’ शब्द में दो सींग और अनुस्वार होता है ।अगर इन दोनों सींगों को हटाकर अनुस्वार के साथ ‘आ’की मात्रा लगा दी जाए तो वह शब्द बनता है मां । मां = सर्वस्व । मां शब्द में सारा ब्रह्मांड समाया हुआ है ।सीधे शब्दों में बात कहूं तो प्रभु में जब- जब धरती पर धर्म की स्थापना के लिए जन्म लिया तो उसे भी ममता की छांव की आवश्यकता रही। हम सब तो आम इंसान है, हमें तो अवश्य ही मां चाहिए। ‘ मां’ शब्द के आगे न तो कोई विशेषण चाहिए,ना ही कोई उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति जैसे अलंकार । ‘मां’ शब्द अपने आप में पूर्ण हैं। शब्द के ऊपर बिंदी इस संपूर्ण विश्व का प्रतीक है । कितना आसान है । हर किसी की व्याख्या या परिभाषा देना ,लेकिन संपूर्ण संसार में मां ही ऐसी है, जो सब अभिव्यक्तियों से परे है। चाहे मैं कवियत्री बन जाऊं या लेखिका, लेकिन मां के बारे में लिखने में मैं भी असमर्थ हूं ।- प्रोफेसर सरला जांगिड़

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