“” मैं नहीं मेरा स्वरूप महान “”
नाराजगी में दिलबर के कटीले नैन से गिरा तो मोती बना ;
खुशी में दोस्त के नेत्र से जो छलका वो आँसू बना ;
पीड़ा में असहाय के आँख से जो बहा तो कर्राह बना ;
बेवफ़ाई पर जो चक्षु से जो टपका वो लहू बना ;
बच्चे के रूदन पर नजर से जो फैला वो काजल बना ,
वेदना दृष्टि से बहने से जो रूका वो दुखड़ा बना ;
चाहत में सुरमई नयन से जो छुटा वो प्रेम बना ;
इश्क़ में मदहोश विलोचन में जो तैरा अश्क़, जिसने पिया तो वह आशिक बना ;
लबे शबाब पर एक बूंद, तो मनचलों के लिए शराब बना ;
होंठो पर एक बूंद, वह प्यास बुझाने की आस बना ;
पैरों के नीचे गिरी जो कई बूंद, कमाल ऐसा कि वो कीचड़ बना ;
पैर आँसुओं से जो जब धुले, भाव स्वरूप वो चरणामृत बना ;
एक बूंद में तुलसी मिलाकर हथेली पर जो मिले, कृपा दृष्टि से वो प्रसाद बना ;
यानि मैं जहाँ था वही रहा, बस बदला हर बार का मेरा स्वरूप ; वही तो मेरी पहचान बना ।
मानस जिले सिंह
【यथार्थवादी विचारक 】
अनुयायी – मानस पंथ
उद्देश्य – मानवीय मूल्यों की स्थापना में संघर्षशील प्रयास करना।
हर जगह अलग अलग स्वरूप । मौका माहौल इन सब पर निर्भर करता है की उसकी पहचान क्या है । सही लिखा आपने “मैं नहीं मेरा स्वरूप महान”
Thanks a lot
इस रंग बदलती दुनिया में सब ने नकाब लगा रखे हैं,
पर अपना सच्चा वजूद बनाने के लिए कुछ तो लीक से हटकर करना ही होगा।
nice view
wah sir maja aa gya kya shabdo ka sagar gira hai
thanks