Friday, April 25, 2025

Sense of Devotion | भक्ति की परिभाषा 

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भक्ति की परिभाषा  | भक्ति का अर्थ  
Sense of Devotion | Meaning of Devotion |  Meaning of Constancy | Bhakti  Ki Paribhasha 
| भक्ति की परिभाषा  |

भक्ति का शाब्दिक अर्थ

‘भक्ति’ शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत धातु “भज्” से मानी जाती है, जिसका अर्थ है — सेवा करना, प्रेम करना, उपासना करना या पूर्ण समर्पण के साथ किसी के प्रति श्रद्धा और प्रीति रखना।

अन्य शब्दों में वैदिक साहित्य में प्रायः “श्रद्धा” आत्मसमर्पण के पर्याय के रूप में प्रयुक्त होता है, जैसा कि –

श्रद्धयाग्निः समिध्यते श्रद्धया हूयते हविः।
श्रद्धा भगस्य मूर्धनि वचसा वेद्यास्मि ॥ ऋग्वेद (10.151.1)

यहाँ “श्रद्धा” भक्ति का ही एक रूप है, जो यज्ञ और उपासना के संदर्भ में परमात्मा के प्रति पूर्ण विश्वास और समर्पण को दर्शाता है। इस प्रकार भक्ति का शाब्दिक अर्थ है परमेश्वर या किसी श्रेष्ठ सत्ता के प्रति प्रेमपूर्ण समर्पण, जो मानव के हृदय की स्वाभाविक और सहज वृत्ति है।

  • निरुक्ति के अनुसार- “भज सेवायाम्” अर्थात् सेवा करना ही भक्ति है।
  • वाच्यार्थ और लक्षणार्थ – भक्ति केवल धार्मिक नहीं है बल्कि आध्यात्मिक जुड़ाव को भी दर्शाती  है।

भक्ति की परिभाषा

भक्ति की परिभाषा को वेदों, उपनिषदों और वैष्णव दर्शन के संदर्भ में देखना और समझना आसान बना देता है| भक्ति में जीव का मन परमात्मा के प्रति अनन्य प्रेम और समर्पण से परिपूर्ण हो जाता है।

अग्नि विश्व अभि पृक्षः सचन्ते ममुद्रं न स्वतः सम यद्धीः। – ऋग्वेद (1.7.7)

इसका अर्थ है कि जैसे नदियाँ समुद्र की ओर प्रवाहित होकर उसमें विलीन हो जाती हैं, वैसे ही भक्त का मन परमेश्वर के प्रति निरंतर प्रवाहमान होकर उसमें लीन हो जाता है। इस प्रकार भक्ति वह अवस्था है, जिसमें जीव की समस्त मानसिक वृत्तियाँ परमेश्वर के दिव्य गुणों में तन्मय हो जाती हैं।
वैष्णव दर्शन में, विशेष रूप से श्री चैतन्य द्वारा प्रचारित मत के अनुसार, भक्ति को पाँच प्रकारों में वर्गीकृत किया गया है:

  • शान्त भाव – परमेश्वर का स्थिर चित्त से चिन्तन।
  • दास्य भाव – स्वयं को परमेश्वर का दास मानकर उपासना।
  • सख्य भाव – परमेश्वर को मित्र के रूप में देखना।
  • वात्सल्य भाव – परमेश्वर को पुत्र के रूप में पूजना।
  • मधुर भाव – परमेश्वर को प्रियतम के रूप में स्वीकार करना।

इनमें से प्रत्येक भाव भक्ति की गहराई को दर्शाता है, जिसमें मधुर भाव को सर्वोच्च माना जाता है। वैसे भक्ति को भारतीय दर्शन में विभिन्न आचार्यों और ग्रंथों ने अलग-अलग दृष्टिकोण से परिभाषित किया है –

  • नारद भक्ति सूत्र में – “सा त्वस्मिन् परमप्रीत्य रूपा” अर्थात वह जो परमात्मा में परम प्रेम का रूप हो तो वह भक्ति कहलाती है।
  • शांडिल्य भक्ति सूत्र – “परमप्रेमरूपा” अर्थात भक्ति को परम प्रेम का दूसरा स्वरूप कहा गया है।
  • भगवद्गीता – “मन्मना भव मद्भक्तः” श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा कि मेरा भक्त बन, मुझ में मन लगा।
  • रामानुजाचार्य – भक्ति को ‘नित्य, अनन्य और परमात्मा के प्रति प्रेमयुक्त’ मानते हैं।

भक्ति के लक्षण –

अनन्यता – भक्ति में भक्त का पूर्ण समर्पण और एकनिष्ठता होती है।

नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम् ॥ – कठोपनिषद् (1.2.23)
अर्थात् परमात्मा की प्राप्ति केवल विद्या, बुद्धि या शास्त्रों के अध्ययन से नहीं होती, बल्कि वह उस भक्त को अपने स्वरूप का दर्शन देता है, जो अनन्य भक्ति के साथ उसे वरण करता है।

प्रेम और स्नेह – भक्ति में परमेश्वर के प्रति गहन प्रेम और स्नेह होता है, जो स्वाभाविक रूप से उत्पन्न होता है।

यम्य ते स्वादु सख्यं स्वक्षा प्रणीतिः। – ऋग्वेद (8.68.11)
अर्थात् यहाँ परमेश्वर को सख्य (मित्रता) और प्रणीतिः (अनन्य भक्ति) यानि परमानंद प्रदान करने वाला बताया गया है।

कृपा की आवश्यकता – भक्ति में परमेश्वर की कृपा का महत्वपूर्ण स्थान है। में कहा गया है:

तपःप्रभावाद् देवप्रसादाच्च ब्रह्म ह श्वेताश्वतरोऽथ विद्वान्। – श्वेताश्वतर उप (6.21)
अर्थात्, तपस्या और ईश्वर की कृपा से ही ब्रह्म की प्राप्ति संभव है।

गुरु भक्ति – भक्ति मार्ग में गुरु के प्रति श्रद्धा और भक्ति को भी महत्वपूर्ण माना गया है।

यस्य देवे परा भक्तिर्यथा देवे तथा गुरौ। – श्वेताश्वतर उपनिषद् (6.23)
अर्थात् जिसकी ईश्वर में परा भक्ति है और वही भक्ति गुरु में भी है, वह सभी सत्य को प्राप्त कर सकता है।

प्रतीक उपासना – उपनिषदों में प्रतीक उपासना को भी भक्ति का एक रूप माना गया है।

सर्वं खल्विदं ब्रह्म तज्जलानिति शान्त उपासीत। – छान्दोग्य उपनिषद् (3.14.1)
अर्थात्, यह समस्त विश्व ब्रह्म का अंश है, अतः शान्त भाव से उसकी उपासना करनी चाहिए।

 

भक्ति के विभिन्न लक्षणों का आलोचनात्मक विवेचन :

  1. आत्मसमर्पण – भक्ति में साधक अपने अहंकार का पूर्ण विसर्जन करता है। आलोचना यह है कि पूर्ण समर्पण साधारण मनुष्य के लिए कठिन हो सकता है।
  2. एकनिष्ठता – भक्त केवल एक ईश्वर में विश्वास रखता है परंतु आधुनिक बहुलतावादी समाज में यह संकीर्णता का रूप भी ले सकती है, यदि अन्य मतों के प्रति सहिष्णुता न हो।
  3. निष्काम भावना – सच्ची भक्ति फल की कामना से रहित होती है। व्यवहारिक जीवन में यह आदर्श कठिन प्रतीत होता है क्योंकि अधिकांश भक्ति में कामनाएँ जुड़ी रहती हैं।
  4. सात्त्विक जीवनचर्या – भक्ति के साथ संयमित आचरण जुड़ा होता है किंतु केवल बाह्याचार में रहकर व्यक्ति सच्ची भक्ति का अनुभव नहीं कर सकता, यह उसका आंतरिक स्वरूप है।
  5. करुणा, दया, सहानुभूति – भक्ति का लक्षण है समस्त प्राणियों में ईश्वर का दर्शन करना। इसकी व्यावहारिक चुनौती यह है कि समाज में द्वेष और भेदभाव अधिक विद्यमान हैं।

भक्ति न केवल धार्मिक साधना है, बल्कि यह एक व्यापक आध्यात्मिक अनुभव है जो आत्मा और परमात्मा के बीच प्रेममय सम्बन्ध को उद्घाटित करती है। शाब्दिक अर्थ से लेकर लक्षणों तक इसकी विभिन्न व्याख्याएँ इसकी बहुआयामी प्रकृति को प्रकट करती हैं। आलोचनात्मक दृष्टिकोण से स्पष्ट होता है कि भक्ति केवल भावना नहीं, अपितु अभ्यास, अनुशासन और जीवनदृष्टि का विषय भी है।

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