Saturday, July 27, 2024

Cause of Manas Panth | मानस पँथ के उदय के कारण

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मानस पँथ का अर्थ | मानस पँथ के उदय के कारण
Cause of Manas Panth Development | Manas Panth Ke Uday Ke Karan

Cause Of Manas Panth | मानस पँथ विचारों के उदय के कारण

धर्म व जाति से बनी यथास्थिति को अवगत करवाते कुछ बिंदु जिन्होंने मानस के विचारों को पनपने में अहम भूमिका निभाई –

मानस ना ही किसी की व्यक्तिगत या धार्मिक भावना को ठेस / आहत पहुंचाने का लक्ष्य रखता है ना ही किसी धर्म विशेष को नीचा दिखाना। हमारा लक्ष्य विकृत सामाजिक , धार्मिक व्यवस्था की प्रकृति या स्वरूप को आपके समक्ष लाते हुए आपको निम्नलिखित बिंदुओं के माध्यम से वास्तविकता से परिचय में एक सार्थक प्रयास देना है।

★ 1. सामाजिक व्यवस्था में छुआछूत
★ 2. जातीय व्यवस्था में ऊंच नीच
★ 3. धर्मों की प्रतिस्पर्धा में बढ़ता पाखंड
★ 4. धर्मों में महत्वाकांक्षी नेतृत्व के चलते बढ़ती कट्टरता
★ 5. श्रेष्ठता की होड़ में फैली अंधभक्ति / अंधविश्वास
★ 6. बहुतायत रूप में आध्यात्मिक मार्ग की जटिलता
★ 7. पंथ निरपेक्षता की होड़ के साथ साथ स्वर्ग नरक का भी फैलाया गया भ्रमजाल
★ 8. मोक्ष नाम की बनाई गई मरीचिका

  1. सामाजिक व्यवस्था में छुआछूत : –

छुआछूत

°° निम्न समझते हुए किसी से अधिक से अधिक दूरी रख वार्तालाप या व्यवहार करने की प्रवृत्ति ही छुआछूत कहलाती है। “”

“” समाज में अपने समान दूसरे को बराबरी का सम्मान ना दे पाने की व्यवस्था ही छुआछूत है। “”

“” आदर के लिए सामाजिक हक की बजाय जब मनोस्थिति में व्याकुलता, कृपालुभाव और दयाभाव का मौजूद होना ही छुआछूत का द्योतक है। “”

छुआछूत सामाजिक में असंतोष से वैमनस्यता, अलगाववाद ब विघटनकारी मानसिकता का पोषक रहा है।

  1. जातिय व्यवस्था में ऊंच नीच :-

★ वर्ण व्यवस्था

● वर्ण शब्दों में :- प्राणी के अभिरुचि एवं कार्यशैली पर आधारित जीवन शैली वर्ण कहलाती है।

● वर्ण के प्रकार :- ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शुद्र ब्राह्मण – ब्रह्म व शिक्षा प्रदाता क्षत्रिय – क्षेत्र की रक्षा एवं शासन व्यवस्थापक वैश्य – व्यापार , पालन पोषण 【खाद्यान्न उत्पादक 】 संयोजक शूद्र – खेल (मनोरंजन),【चिकित्सा, संगीत, नृत्य, कलात्मक व सेवा】सुविधा प्रदाता
★ जाति
वर्ण का विघटित, सांस्कृतिक, सैद्धांतिक एवं जगह समूह विशेष जाति कहलाता है।
★ गौत्र
वर्ण का सूक्ष्म ,अविभाजित एवं जाति का रंग रूप व कद काठी वर्गीकरण गौत्र कहलाता है।

“” आज हमारे समाज ने वर्ण व गौत्र के व्यवस्थित एवं वैज्ञानिक्ता ढांचे को कालांतर में कुटिल, भ्रामिक व महत्वकांक्षी लोगों ने भेदभाव, छुआछूत, ऊंचनीच व जाति का अखाड़ा बना दिया। यह हमारे समाज के लिए शर्म, विघटन, विध्वंस के कारक हैं। “”

  1. धर्मों की प्रतिस्पर्धा में बढ़ता पाखण्ड :-

अन्धी प्रतिस्पर्धा एवं प्रतिद्वंद्विता प्रतिशोध को जन्म देती है। जिसका परिणाम कभी भी सुखद नहीं रह सकता।

★ प्रतिस्पर्धा :- प्रतियोगितात्मक स्थिति में व्यक्ति या समूह जब अपने आप को दूसरों से श्रेष्ठकर सिद्ध करने के लिये अनुकूल एवं समुचित प्रयास करना ही प्रतिस्पर्धा कहलाती है।

★ प्रतिद्वंद्विता :- प्रतियोगितात्मक स्थिति में प्राणी जब अपने आपको अन्य से श्रेष्ठकर सिद्ध करने के लिये हर सम्भव समुचित संघर्ष ही प्रतिद्वंद्विता है।

★ प्रतिशोध :- जब प्राणी का किसी अन्य वस्तु या प्राणी द्वारा मन, वचन और कर्म की क्रिया का प्रतिरोधात्मक संकल्पित कर्म【 जहां स्वंय को श्रेष्ठ व सही प्रदर्शित करने लिए किसी भी ( उचित या अनुचित ) मार्ग , संघर्ष व तप का चयन करते हुऐ निर्धारित लक्ष्य अर्जित प्रयास 】 ही प्रतिशोध है।

पाखण्ड :-
वास्तविकता से कोसों दूर अपने आप को श्रेष्ठ साबित करने की होड़ पाखण्ड कहलाता है।

सरल शब्दों में :- सत्यनिष्ठा व ईमानदारी को नकारते हुए झूठ व दिखावे बना आवरण ही पाखण्ड है।

हमारे समाज धर्मो में फैला पाखंड अनाचार व अविश्वास को जन्म देता है जो किसी भी स्वस्थ समाज के लिए हानिकारक साबित होगा।

  1. धर्मों में महत्वाकांक्षी नेतृत्व के चलते बढ़ती कट्टरता :-

★ महत्वकांक्षा :-
जीवनशैली, व्यक्तित्व के साथ भविष्य को सुखद व सुरक्षित बनाने की संकल्पना के लिए वर्तमान में अथक एवं निरंतर प्रयासरत रहना महत्वकांक्षा कहलाती है।

★ नेतृत्व :-
“” प्रतिनिधित्व क्षमता ही नेतृत्व कहलाती है। “”

“” किसी कार्य को क्रम व योजनाबद्ध तरीके से प्रारंभ, क्रियान्वयन और समापन करवाने की अद्वितीय क्षमता ही नेतृत्व है। “”

सरल शब्दों में –
“” असाधारण व्यक्तित्व बनाने हेतु लिया गया निर्देशन का साहसिक कदम को ही नेतृत्व कहा जाता है। “”

“” महत्वपूर्ण भूमिका सौंपने से पूर्व नेतृत्व क्षमता के साथ इरादों में सच्चाई , कुछ कर गुजरने का जज्बा और उसके प्रति समर्पण जरूर देखना चाहिए। “”

★ कट्टरता :- विचारों एवं नियमों के प्रति कठोरता बनाते हुए आचरण में आक्रामक रवैया अपनाना कट्टरता कहलाती है।
दूसरे शब्दों में :-
विचारों एवं नियमों की गुलामी अपनाते हुए इनको सरंक्षित व अखण्ड रखने के लिये दूसरों को नुकसान पहुंचाने की तत्त्परता ही कट्टरता कहलाती है।

निजी महत्वाकांक्षाएं जब विकराल रूप धारण करने लगती हैं तो, परिवार में रिश्तों की मर्यादा तार – तार होकर टूटने लगती हैं और कट्टरपंथी विचारधारा समाज के लिए अलगाव, विध्वंस व विघटन कारक साबित होती हैं।

  1. धर्मों में श्रेष्ठता की होड़ में फैली अंधभक्ति / अंधविश्वास :-

★ धर्म :-
【एक या अनेक प्राणी अथवा वस्तु को सर्वोच्च शक्ति व जीवन आदर्श मानते हुए, उनके अद्वितीय व अलौकिक गुणों पर आधारित】मानव श्रृंखलित नियमों और मान्यताओं के साथ आध्यात्मिक मार्ग प्रशस्तिकरण ही धर्म है।।

आज संसार में अधिकांश मनुष्य या समूह अपने अपने धर्म एवं विचारधारा को प्रचारित, प्रसारित 【फैलाने 】में अन्धी एवं बहरी प्रतिस्पर्धा में लगें हैं। ऐसी प्रतिस्पर्धा सदैव स्वतंत्र एवं स्वच्छ लोकतंत्र के लिये कष्टकारी, विघटनकारी और कभी तो विनाशकारी साबित हुई हैं।

●धर्म का सृजन :-

व्यक्ति या व्यक्ति समूह की एकरूप विचारधारा , नियमों , मान्यताओं, रहन सहन, खानपान एवं क्षेत्रीय जलवायु की आधारशिला पर हर धर्म का सृजन हुआ है।

क्योंकि सृष्टि का मालिक एक है अतः उसका मानव के प्रति धर्म भी एक ही है और वह है प्राणी धर्म।
सृष्टि के प्रत्येक तत्व व प्राणी ने अपने गुण, दायित्व और कर्म को पूरी शिद्दत के साथ निभाया है सिवाय इंसान को छोड़कर।
● मानव धर्म :-
प्राणी का सरंक्षण ,【 समाजिकता 】 में स्वंय को आत्मनिर्भर रखते हुए, 【परोपकार】दूसरे प्राणियों को मार्गदर्शन व सहयोग से उनके जीवन को सँवारने का कर्तव्यबोध ही मानव धर्म है।

दूसरे शब्दों में :-

“” धृति: क्षमा दमोऽस्‍तेयं शौचमिन्‍द्रियनिग्रह:।
धीर्विद्या सत्‍यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्‌।। “”
दस मानवीय मूल्य –

  1. – धैर्य धारण
  2. – क्षमाशीलता
  3. – सयंम
  4. – चोरी से परहेज
  5. – शुद्धता
  6. – इन्द्रिय नियंत्रण
  7. – बुद्धिमत्ता का परिचय
  8. – ज्ञान का संचय
  9. – सत्य का निर्वहन
  10. – क्रोध का त्याग

उपरोक्त श्लोक को जीवन का संस्कार या
मानवीय मूल्यों को जीवन आधार बनाना ही मानव धर्म कहलाता है।
● अंधभक्ति :-

“” किसी व्यक्ति विशेष के व्यक्तित्व को बनाये रखने हेतु प्रतिकूल परिस्थितियों में भी नतमस्तक होना अंधभक्ति कहलाती है। “”

“” किसी के आत्मसम्मान व स्वाभिमान के सरंक्षण में अपने सर्वहित विचारों के विरुद्ध अनुमोदन ही अंधभक्ति कहलाती है। “”

“” किसी के प्रति हृदय समर्पित भाव जहां स्वाभिमान व सर्वकल्याण को भी ताक रख दिया जाये वही अंधभक्ति है। “

“” ★ किसी के प्रति प्रेम की पहली सीढ़ी उसके प्रति आदर होता है।

★ जब आदर सकारात्मक हद पार कर जाये तो वह चापलूसता बनती है।

★ और जब चापलूसता भी की अति हो जाये तो वह अंधभक्ति शुरू हो जाती है।””

“” यानि अति हर चीज कि हानिकारक होती है ।
★ प्रेम की अधिकता मोह और फिर हिये का अंधा बनाती है।
★ मनमुटाव की अधिकता अंतर्कलह और फिर द्वेषता का रूप ले लेती है। “”

  1. बहुतायत रूप में फैली आध्यात्मिक मार्ग की जटिलता :-

★ आध्यात्मिक मार्ग :-
सृष्टि में ईश्वरीय शक्ति का अहसास, जानने व पाने की लालसा हेतु किये जाने वाले यत्न / विधि ही अध्यात्म 【आध्यात्मिक मार्ग 】है।

सरल शब्दों में :-
स्वयं में मानवीय मूल्यों का अध्ययन, विश्लेषण व संग्रहण के साथ अनुसरण करने तरीका ही आध्यात्मिक मार्ग है।

★ जटिलता :- कार्य विधि का अत्यधिक मुश्किल भरा होना जटिलता का परिचायक है।

सरल शब्दों में :-
कार्य को पूर्ण या हल करने में तर्कशक्ति का बेजा प्रयोग होना ही जटिलता कहलाती है।

ईश्वर प्राप्ति को ही अधिकतर ने आध्यात्मिक मार्ग का अंतिम लक्ष्य माना हैं। इस अदृश्य शक्ति की तरफ खिंचाव पैदा कर वास्तविक जीवन से इंसान को दूर करने का प्रयास रहा है। जो काफी हद तक स्वप्न में जीना कहा जा सकता है।

  1. पंथ निरपेक्षता की होड़ के साथ साथ स्वर्ग नरक का भी फैलाया गया भ्रमजाल :-

★ पंथ निरपेक्षता
.● पंथ :-

ईश्वर प्राप्ति हेतु दर्शाया गया आध्यात्मिक मार्ग 【 जिसमें एक व्यक्ति, एक पूजा पद्धति, एक विशेष पूज्यस्थल और एक ही जीवन निर्वहन शैली शामिल हो। 】 ही पंथ कहलाता है।
● निरपेक्षता :-
बिना किसी का पक्ष लेते हुए आचरण करना।
● पंथ निरपेक्षता :-
“” पंथ को तटस्थ मानते हुए पक्षविहीन आचरण यानि शासन करना ही पंथ निरपेक्षता कहलाती है। “”

पंथनिरपेक्षता को ही अज्ञानवश धर्मनिरपेक्षता कहा जाने लगा है।

मानवीय मूल्य, अंतर्निहित गुण या संस्कार ही धर्म का परिचायक है।

व्यवहारिकता में अपने अध्यात्म मार्ग पर अग्रसर होने पर किसी अन्य पंथ के बारे में उचित आचरण रखना यानि सम्मान करना ही सेक्युलरिज्म है।

वास्तविकता में आज पंथनिरपेक्षता यानि सेक्युलरिज्म का मतलब सिर्फ मुस्लिम समुदाय के साथ खाना खाने और फोटो खिंचवाने की रस्म भर रह गई है।

यह संकीर्ण [ तुच्छ ] सोच ही स्वस्थ समाज के लिए अत्यंत पीड़ादायक, विघटनकारी कारक है।

हमें चाहिए कि सभी धार्मिक लोगों के बीच प्यार, सहयोग व एक दूसरे के प्रति सम्मान हो।

भ्रमजाल :-
अनिश्चितता की स्थिति में होना या ना होना असमंजस में उलझता ही चला जाये तो वह भ्रमजाल कहलाता है।

सरल शब्दों में –
कार्य की प्रकृति का कोई ओर छोर के अस्पष्टता के साथ समयावधि का भी अबूझ पहेलीनुमा आचरण ही भ्रम जाल कहलाता है।

मूल कविता के शब्द बदलकर कहूँगा –

हो गई है पीड़ इतनी, अब बस पिघलनी चाहिए;
इस हिमालय से भी फिर, कोई गंगा निकलनी चाहिए;
सिर्फ हंगामा खड़ा करना, मेरा मकसद नहीं;
मेरी कोशिश बस इतनी सी कि, ये सूरत बदलनी चाहिए;
तेरे सीने में नहीं तो, मेरे सीने में ही सही;
हो कहीं भी प्यार, तो ये प्यार मानवता पर घनघोर घटा बनकर बरसना चाहिए।।

  1. मोक्ष नाम की बनाई गई मरीचिका :-

‘” मोक्ष ” धार्मिक सन्दर्भ में :- “” सांसारिक रिश्तों में समता, भोज्य पदार्थों के स्वाद की नीरसता व भौतिक संसाधनों के उपयोग के प्रति उदासीनता का भाव और जनकल्याण के प्रति समर्पित होते हुए आध्यात्मिकता का शून्य स्थिति को प्राप्त करना ही मोक्ष है। “”

दूसरे शब्दों में :- “” जगत की मोह माया, भोग से निवृत्ति व भौतिक सुखों से विरक्ति के साथ आत्म एवं तत्व ज्ञान प्राप्ति ही मोक्ष यानि मुक्ति कहलाती है।। “”

मोक्ष तार्किक सन्दर्भ में :-
“” मानव का प्राणी धर्म में रहते अपने व्यक्तित्व का ईश्वरीय गुणों में विलीनता या समावेशी भाव ही मोक्ष यानि मुक्ति है। “”

मरीचिका

“” प्राकृतिक घटना में दृष्टिभ्रम / मतिभ्रम स्थिति का पैदा होना ही मरीचिका है।””

“” अस्पष्टता की स्थिति में धोखा या छल के घटित होने के अहसास का भाव ही मरीचिका है। “”

मरीचिका साधारण शब्दों में

“”सत्यता से दूर अस्पष्ट और भ्रम की स्वीकार्यता ही मरीचिका है।””

सामाजिक जीवन का त्याग सन्यास की ओर अग्रसर एक कदम तो हो सकता है पर मुक्ति की तरफ हो ये जरूरी नहीं। मुक्ति तो सांसारिक जीवन में रहते हुए भी प्राप्त की जा सकती है।
यानि मोक्ष जटिलता, भ्रमजाल और पाखंड के रास्ते नहीं बल्कि जगतप्रणियों से दया, करुणा और प्रेम से सहजता व सरलता से प्राप्त की जा सकती है।

–// मेरे जहन में कुछ सवाल //– * जहां अगले दिन को सुनिश्चित नहीं कर सकते वहां पाखण्ड, आडम्बर और अंधविश्वास के चलते जन्म जन्म के छुटकारे की अंधी दौड़ में कूद पड़ जाते हैं। मैं हैरान हूं कि हम मोक्ष या मुक्ति क्यों चाहते हैं और किससे ? * ईश्वर हर कण कण में है तो हम किस भगवान से और किस रूप में मिलना चाहते हैं और क्यों ? * प्रचलित धर्म तो अलग-अलग मोक्ष प्राप्ति के अपने-अपने रास्ते दिखलायेगें। यानि मोक्ष हर धर्म के अनुयायी की भक्ति का सर्वोच्च पराकाष्ठा बनी है क्यों ?

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Manas Jilay Singh 【 Realistic Thinker 】
Follower – Manas Panth
Purpose – To discharge its role in the promotion of education, equality and self-reliance in social.

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Manas Shailja
Member
2 years ago

REAL AND TRUE CAUSE

Sarla Jangir
Sarla jangir
2 years ago

Great thinker

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