धर्म का अर्थ | धर्म की परिभाषा
Meaning of Dharma | Definition of Dharma | Dharma Ki Paribhasha
| धर्म का अर्थ |
“धर्म” भारतीय चिंतन का ऐसा केंद्रीय तत्व है, जो केवल पंथों व संप्रदायों के अनुष्ठानों तक सीमित नहीं है बल्कि जीवन के नैतिक, सामाजिक, आध्यात्मिक और दार्शनिक आयामों को भी समाहित करता है। दूसरे शब्दों में भारतीय दर्शन और शास्त्रों में “धर्म” शब्द एक ऐसी अवधारणा है जो नैतिकता, कर्तव्य, सत्य, विश्व व्यवस्था (ऋत), सामाजिक समन्वय और आत्मिक विकास को समाहित करती है। यह न केवल व्यक्तिगत जीवन को दिशा देता है बल्कि सामाजिक और ब्रह्मांडीय व्यवस्था को भी संतुलित रखता है।
“धर्म” शब्द का मूल संस्कृत धातु “धृ” (धारण करना) है, जिसका अर्थ है “जो धारण किया जाए” या “जो संसार की सत्ता को बनाए रखे।”
वैसे धर्म को जानना है तो पहले इसके लक्षणों को जानना होगा साथ ही साथ हम शुरुआती भारतीय दर्शन की लेखन सामग्री का भी विश्लेषणात्मक अध्ययन करना होगा| ऐसे में बौद्ध, जैन, वेद (श्रुति ग्रंथ), शास्त्रों, प्रस्थानत्रयी और अन्य प्रमाणिक साहित्य का अवलोकन करते हैं तो कुछ तस्वीर साफ होती प्रतीत होती है|
इसमें शुरुआती तीन श्लोक को केंद्र में रखते हुये इसके इर्द गिर्द बने ताने बाने का हम विश्लेषण करते हैं|
“अथातो धर्मजिज्ञासा”
धर्म बौद्धिक और आत्मिक शोध का विषय है।
“यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत । अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम् ॥”
हे अर्जुन! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म का उत्थान होता है, तब-तब मैं अपने रूप को रचता हूँ (अर्थात प्रकट होता हूँ)।
“धर्मः तस्मात् धारणात्”
धर्म वह है जो धारण करता है अर्थात् जो समाज और व्यक्ति को संतुलित रखता है।
“धर्म” की परिभाषा निम्नलिखित प्रमुख आधारों पर की जा सकती है। –
- बौद्ध दर्शन: अष्टांगिक मार्ग से निर्वाण
“सब्बपापस्स अकरणं, कुसलस्स उपसम्पदा।
सच्चित्तपरियोदपनं, एतं बुद्धान सासनं।” – धम्मपद
अर्थ: सभी पापों को न करना या किसी भी बुराई को न करना।,
कुशल कर्मों को प्राप्त करना या अच्छे कर्मों को करना और विकसित करना।,
अपने मन को शुद्ध करना या अपने मन को अच्छी तरह से प्रशिक्षित करना और संवरना।
यह बुद्ध का धर्म है यानि यही बुद्ध की शिक्षा है।
आधार: धर्म वह मार्ग है जो सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वाक, सम्यक कर्मांत, सम्यक आजीव, सम्यक व्यायाम, सम्यक स्मृति, सम्यक समाधि की ओर अग्रसित करे |
“धम्मो हवे रक्कति धम्मचारी”
अर्थ: यदि कोई व्यक्ति धर्म के नियमों का पालन करता है और धम्म के मार्ग पर चलता है, तो धर्म उसकी रक्षा करता है।
आधार: अहिंसा, सम्यक आचरण, एवं करुणा।
- जैन दर्शन: अहिंसा और आत्मशुद्धि
“अहिंसा परमो धर्मः”
अर्थ: जैन दर्शन में धर्म को पंचमहाव्रत (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह) के रूप में परिभाषित किया गया है। उसमें भी अहिंसा को परम धर्म स्वीकार किया है|
आधार: धर्म वह मार्ग है जो आत्मा को कर्मों के बंधन से मुक्त करता है और मोक्ष की ओर ले जाता है।
- स्मृति: नैतिकता और सामाजिक कर्तव्य
“धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्।” – मनुस्मृति
अर्थ: धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह, धी (विवेक), विद्या, सत्य, अक्रोध – ये दस धर्म के लक्षण हैं।
आधार: धर्म व्यक्तिगत नैतिकता और सामाजिक व्यवस्था का आधार है।
“वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियं आत्मनः। एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद् धर्मस्य लक्षणम्।”
अर्थ: वेद, स्मृति, सदाचार, और आत्मा की संतुष्टि – ये धर्म के चार लक्षण हैं।
आधार: धर्म का आधार शास्त्र, सज्जनों का आचरण और आत्मा की शुद्धता है।
“वेदोऽखिलो धर्ममूलं स्मृतिशीले च तद्विदाम्।
आचारश्चैव साधूनामात्मन: तुष्टिरेव च॥” – याज्ञवल्क्य स्मृति
अर्थ: “वेद, स्मृति (वेदों की व्याख्याएँ), सदाचार (सत्यपुरुषों का आचरण) और आत्मा को प्रिय (अपने मन को प्रसन्न करने वाला) – ये चारों धर्म के लक्षण हैं।”
आधार: वेद, स्मृति, सज्जनों का आचरण, आत्मतुष्टि
“आचारः परमो धर्मः।” – याज्ञवल्क्य स्मृति
अर्थ: सदाचार ही परम धर्म है।
आधार: धर्म का आधार सत्य और नैतिकता पर आधारित आचरण है।
- श्रीमद्भगवद्गीता: स्वधर्म और मोक्ष
अहिंसा सत्यमक्रोधस्त्यागः शान्तिरपैशुनम्।
दया भूतेष्वलोलुप्त्वं मार्दवं ह्रीरचापलम् ||
अर्थ: अहिंसा, सत्य भाषण, क्रोध न करना, संसार की कामना का त्याग, अन्तःकरण में राग-द्वेष जनित हलचल का न होना, चुगली न करना, प्राणियों पर दया करना सांसारिक विषयों में न ललचाना, अन्तःकरण की कोमलता, अकर्तव्य करने में लज्जा; चपलता का अभाव।
“श्रेयान्स्वधर्मो विगुणः परधर्मात्स्वनुष्ठितात्।
स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः “
अर्थ: अपना स्वाभाविक कर्तव्य में भले ही कुछ कमी हो पर दूसरे के कर्तव्य से बेहतर है| चाहे भले ही दूसरा कर्तव्य कितना भी अच्छा हो| अपने स्वाभाविक कर्तव्य का पालन करते हुए मर जाना फिर भी दूसरे के कर्तव्य का पालन करने से बेहतर है क्योंकि दूसरे का कर्तव्य भयावह हो सकता है|
आधार: स्वधर्म अर्थात अपने स्वभाव और योग्यता के अनुसार कर्तव्य करना।
“नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्।”
अर्थ: इस (धर्म) के प्रयास में कोई हानि नहीं है, न ही कोई दोष उत्पन्न होता है। इसका थोड़ा सा पालन भी महान भय से रक्षा करता है।
आधार: धर्म वह मार्ग है जो व्यक्ति को अपने कर्तव्यों के निर्वहन द्वारा भय और मोह से मुक्त करता है।
- उपनिषद: सत्य, आत्मज्ञान, और आत्म-अनुशासन
“सत्यं वद। धर्मं चर।
स्वाध्यायान्मा प्रमदः।” – तैत्तिरीय उपनिषद्
अर्थ: सत्य बोलो, धर्म का पालन करो और स्वाध्याय (अध्ययन) में प्रमाद न करना।
आधार: धर्म वह मार्ग है जो सत्य, आत्म-अनुशासन और ज्ञान के माध्यम से आत्मसाक्षात्कार की ओर ले जाता है।
- महाभारत: करुणा, न्याय, और सत्य
“आनृशंस्यं परो धर्मः।”
अर्थ: करुणा और दया सर्वोच्च धर्म है।
आधार: धर्म का आधार दूसरों के प्रति करुणा और अहिंसा है।
“धर्मो रक्षति रक्षितः”
अर्थ: “जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है।”
आधार: धर्म वह है जो रक्षा करे “व्यक्ति की भी और समाज की भी।“
उपरोक्त बिंदुओं से यह निष्कर्ष निकाल जा सकता है कि “धर्म” एक बहुआयामी अवधारणा है —
- यह शास्त्र का आदेश है,
- स्वधर्म रूपी कर्तव्य है,
- सत्य व आचरण का मार्ग है,
- और अंततः अहिंसा, करुणा और विवेक से युक्त आत्मिक यात्रा है।
भारतीय दर्शन में “धर्म” की परिभाषा न तो एकरूपी है और न ही स्थैतिक। यह बहुलतावादी दृष्टिकोण धर्म को एक सार्वभौमिक मूल्य व्यवस्था में रूपांतरित करता है, जिसमें व्यक्ति, समाज, प्रकृति और ब्रह्म — सभी के प्रति उत्तरदायित्व समाहित है।
आधुनिक संदर्भ में धर्म को केवल संप्रदाय या पूजा-पद्धति से जोड़ना उसकी मूल व्यापकता को सीमित करना है।
धर्म वह नैतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक मार्ग है, जो सत्य, अहिंसा, करुणा और स्वधर्म (व्यक्तिगत कर्तव्य) के पालन के माध्यम से व्यक्ति और समाज को संतुलित रखता है साथ ही साथ विश्व व्यवस्था (ऋत) के साथ सामंजस्य भी स्थापित करता है| धर्म मानवीय परम ध्येय में अग्रसर रहते हुये आत्मा को मोक्ष या निर्वाण की ओर ले जाता है।
“धर्म वह सार्वभौमिक जीवन-संहिता है, जो विधि सम्मत, स्वधर्मानुकूल, नैतिक गुणों से युक्त, आचारप्रधान और आत्म-लोक कल्याणकारी होती है।”
“धर्म वह सार्वभौमिक सिद्धांत है जो वेदसम्मत, नैतिक-आत्मिक गुणों से युक्त व व्यक्ति की प्रकृति के अनुरूप कर्तव्यपालन में व्यक्त होता है साथ ही साथ आत्मकल्याण और लोककल्याण दोनों की सिद्धि भी करता है।”
सारांश में, धर्म न केवल आस्था का विषय है अपितु एक जीवंत जीवन-दर्शन है — जो व्यक्ति को बाह्य अनुशासन के साथ-साथ आंतरिक विकास की ओर भी प्रेरित करता है।