Wednesday, April 16, 2025

Meaning of Consciousness | चेतना का अर्थ 

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चेतना का अर्थ  | चेतना की परिभाषा 
Meaning of Consciousness | Definition of Consciousness | Meaning of Sentience
| चेतना का अर्थ |

 

चेतना हमारे मानसिक आइसबर्ग का केवल ऊपरी भाग है। – सिगमंड फ्रायड

“चेतना एक अवैज्ञानिक अवधारणा है; इसे व्यवहार के माध्यम से ही समझा जाना चाहिए।”जॉन बी. वॉटसन

चेतना वह प्रक्रिया है जो व्यक्ति के आंतरिक अनुभवों और उसके अहं (Ego) के बीच संबंध बनाती है। – कार्ल जुंग

“चेतना व्यक्तिपरक अनुभव की वह स्थिति है जिसे भौतिक प्रक्रियाओं से पूरी तरह समझाया नहीं जा सकता।”डेविड चाल्मर्स

चेतना के प्रमुख गुण:

  1. आत्म-जागरूकता: चेतना का यह गुण व्यक्ति को स्वयं के अस्तित्व और उसकी मानसिक अवस्थाओं के प्रति सचेत करता है। उदाहरण के लिए, “मैं सोच रहा हूँ” यह विचार स्वयं चेतना का प्रमाण है।
  2. संनादात्मकता: चेतना हमेशा किसी न किसी वस्तु या विचार की ओर निर्देशित होती है। यह कभी भी शून्य में नहीं रहती; यह हमेशा “किसी चीज़ के बारे में” होती है।
  3. गुणात्मकता: चेतना में अनुभवों की गुणवत्ता होती है, जिसे “क्वालिया” कहते हैं। जैसे, लाल रंग को देखने का अनुभव या दर्द का अनुभूति केवल व्यक्तिगत स्तर पर ही समझा जा सकता है।
  4. परिवर्तनशीलता: चेतना स्थिर नहीं होती; यह समय के साथ बदलती रहती है और विभिन्न अवस्थाओं जैसे जागृति, स्वप्न, और गहरी नींद में भिन्न-भिन्न रूप लेती है।
  5. स्वप्रकाशकता:  चेतना स्वयं को जानने वाली शक्ति है।
  6. अनुभव-संवेदन क्षमता:  सुख-दुख, इच्छा-अनिच्छा का बोध कर सकती है।
  7. एकता की अनुभूति: शरीर अलग-अलग तत्त्वों से मिलकर बना है, लेकिन चेतना उसे एकीकृत अनुभव कराती है।
  8. निरंतरता: जाग्रत, स्वप्न व सुषुप्ति अवस्थाओं में भी चेतना का अस्तित्व बना रहता है।
  9. अमूर्तता: चेतना को छुआ या मापा नहीं जा सकता।

चेतना के लक्षण

  1. अंतःस्फुरण: चेतना व्यक्तिपरक होती है। इसे पूर्ण रूप से वस्तुनिष्ठ रूप से मापा या समझा नहीं जा सकता।
  2. एकता: चेतना विभिन्न संवेदनाओं और विचारों को एक समग्र अनुभव में संयोजित करती है।
  3. सक्रियता: यह निष्क्रिय नहीं होती; यह विचार, भावना और निर्णय लेने की प्रक्रिया में सक्रिय भूमिका निभाती है।
  4. अनुभवात्मकता: चेतना का आधार अनुभव है, जो इसे मशीनों या निर्जन वस्तुओं से अलग करता है।
  5. जागरूकता: व्यक्ति अपने और वातावरण के प्रति सचेत होता है।
  6. स्मरण शक्ति: चेतना के माध्यम से स्मृति संभव है।
  7. विकल्प का चयन: चेतना ही निर्णय लेने में सक्षम बनाती है।
  8. आत्म-चिंतन: मनुष्य आत्ममंथन कर सकता है, यह चेतना का विशिष्ट लक्षण है।

चेतना के प्रकार

दार्शनिक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से चेतना को विभिन्न प्रकारों में वर्गीकृत किया जा सकता है:

  1. प्राथमिक चेतना / मूल चेतना: यह मूलभूत जागरूकता है, जो संवेदनाओं और परिवेश के प्रति सजगता तक सीमित है। यह पशुओं में भी देखी जा सकती है।
  2. उच्चतर चेतना / प्रबुद्ध चेतना: यह आत्म-चिंतन, तर्क और भाषा के उपयोग से संबंधित है, जो मुख्य रूप से मनुष्यों में पाई जाती है।
  3. अवचेतन: यह वह चेतना है जो प्रत्यक्ष रूप से जागरूकता में नहीं आती परंतु व्यवहार और निर्णयों को प्रभावित करती है।
  4. सामूहिक चेतना: समाजशास्त्री एमिल दुर्खाइम के अनुसार, यह सामाजिक समूहों में साझा विश्वासों और मूल्यों से उत्पन्न होती है।
  5. वैयक्तिक / अहं चेतना: व्यक्ति की अपनी अनुभूति और आत्मबोध।
  6. पराचेतना: ध्यान, समाधि आदि में प्राप्त उच्चतर चेतना।
  7. सुपरचेतना: आत्मबोध या ब्रह्मसाक्षात्कार की अवस्था।

भारतीय दर्शन में चेतना के स्तर

भारतीय दर्शन चेतना को बहुस्तरीय मानता है। विभिन्न दर्शनों और योग परंपराओं में चेतना को निम्न स्तरों में विभाजित किया गया है:

  1. जाग्रत / सचेत अवस्था (Waking Consciousness)

यह वह स्तर है जिसमें व्यक्ति पूर्ण रूप से जागरूक होता है और अपने परिवेश, विचारों और कार्यों पर नियंत्रण रखता है। उदाहरण के लिए पढ़ते समय या बातचीत करते समय यह अवस्था सक्रिय होती है।

  • बाह्य विषयों के प्रति जागरूकता।
  • मन और इंद्रियों के माध्यम से अनुभव।
  1. स्वप्न / अवचेतन अवस्था (Dream / Subconscious)
  • यह चेतना का वह स्तर है जो (इस समय चेतन) प्रत्यक्ष जागरूकता से नीचे होता है, परंतु व्यवहार और भावनाओं को प्रभावित करता है। जैसे आदतें, पूर्व अनुभव, स्वचालित प्रक्रियाएँ (जैसे साँस लेना) और दमित स्मृतियाँ शामिल हैं।
  • आंतरिक अनुभवों का संसार।
  • चेतना मानसिक संस्कारों से प्रभावित होकर स्वप्न रचती है।
  1. सुषुप्ति / अचेतन अवस्था (Deep Sleep / Unconscious)

सिगमंड फ्रायड के अनुसार यह चेतना का गहरा स्तर है जिसमें दमित इच्छाएँ, आघात और ऐसी स्मृतियाँ होती हैं, जो सचेत मन तक नहीं पहुँचतीं परंतु सपनों और व्यवहार के माध्यम से प्रकट हो सकती हैं।

  • कोई अनुभव नहीं, फिर भी चेतना अस्तित्व में रहती है।
  • आत्मा की निकटता की अनुभूति।
  1. तुरीय अवस्था / अलौकिक / पराचेतन (Transcendental Consciousness)

यह उच्च प्रेरणा, रचनात्मकता, समाधि की स्थिति है| कुछ आधुनिक मनोवैज्ञानिक जैसे कार्ल जुंग इसे collective unconscious के रूप में मानते हैं| आधुनिक न्यूरोसाइकोलॉजी में भी चेतना के स्तरों की पुष्टि मस्तिष्क की विभिन्न लहरों (जैसे – अल्फा, बीटा, थीटा, डेल्टा) के माध्यम से की जाती है।

  • चारों अवस्थाओं से परे।
  • यह अवस्था ब्रह्मानुभूति या समाधि की होती है — शुद्ध चेतना।

चेतना का लक्ष्य

मनोविज्ञान में चेतना का कोई एक निश्चित “लक्ष्य” नहीं होता जैसा कि दर्शन या अध्यात्म में देखा जाता है। फिर भी विभिन्न मनोवैज्ञानिक सिद्धांत इसे अलग-अलग संदर्भों में देखते हैं वहीं साथ ही भारतीय दर्शन में चेतना का कोई स्थैतिक स्वरूप नहीं है, यह एक गत्यात्मक प्रक्रिया है जो आत्मबोध और मोक्ष की ओर अग्रसर होती है।

फ्रायड का दृष्टिकोण: चेतना का लक्ष्य अचेतन सामग्री को सचेत मन में लाना है, ताकि व्यक्ति अपनी दमित भावनाओं को समझ सके और मानसिक संतुलन प्राप्त कर सके।

मानवतावादी दृष्टिकोण: अब्राहम मास्लो जैसे मनोवैज्ञानिकों के अनुसार, चेतना का लक्ष्य आत्म-साक्षात्कार (Self-actualization) है, जिसमें व्यक्ति अपनी पूर्ण क्षमता को प्राप्त करता है।

संज्ञानात्मक दृष्टिकोण: यहाँ चेतना का उद्देश्य सूचना प्रसंस्करण, समस्या समाधान और अनुकूलन है, जो जीवन में प्रभावी ढंग से कार्य करने में सहायता करता है।

अद्वैत वेदांत दृष्टिकोण: चेतना ही ब्रह्म है – “सत्-चित्-आनंद”। इसमें चेतना का लक्ष्य अविद्या का नाश करके आत्मा और ब्रह्म की एकता को जानना।

योग दर्शन दृष्टिकोण: चेतना का लक्ष्य है चित्तवृत्तियों का निरोध ताकि पुरुष का साक्षात्कार हो सके। समाधि की अवस्था में चेतना शुद्ध हो जाती है।

बौद्ध दर्शन चेतना: चेतना क्षणिक है (क्षणिकवाद)।इसमें चेतना का लक्ष्य है- “निर्वाण” चित्त का शांत होना।

जीवन पर प्रभाव

भारतीय दर्शन चेतना को केवल मानसिक प्रक्रिया नहीं मानता, बल्कि यह जीवन के प्रत्येक पक्ष को प्रभावित करती है – नैतिकता, निर्णय, संबंध, व्यवहार, और उद्देश्य।

नैतिक और आध्यात्मिक विकास: अधिक विकसित चेतना से करुणा, क्षमा, सहिष्णुता बढ़ती है।

स्वास्थ्य और मानसिक स्थिति: ध्यान और योग से चेतना का परिष्कार मानसिक शांति और स्वास्थ्य में सहायक होता है। अवचेतन और अचेतन स्तर पर चेतना भावनाओं को संचालित करती है। उदाहरण के लिए, अचेतन में दमित भय चिंता का कारण बन सकता है।

आत्मबोध और मुक्ति: चेतना का उत्कर्ष आत्मा के स्वरूप की पहचान कराता है। चेतना स्मृति के निर्माण और पुनर्प्राप्ति में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है जो शिक्षा और व्यक्तिगत विकास के लिए आवश्यक है।

व्यवहार और निर्णय: जागृत चेतना व्यक्ति को तर्कसंगत निर्णय लेने और अपने कार्यों को नियंत्रित करने में सक्षम बनाती है।

सामाजिक संबंध: चेतना सामाजिक संकेतों को समझने और दूसरों के साथ संवाद करने की क्षमता प्रदान करती है। Empathy, सहानुभूति और नैतिकता चेतना के विकास पर आधारित हैं।

दार्शनिक दृष्टि से आलोचनात्मक विश्लेषण

चेतना को लेकर दर्शनशास्त्र में कई मतभेद और बहसें रही हैं। पश्चिमी दर्शन में रेने डेकार्ट  ने “कॉगिटो एर्गो सुम” (मैं सोचता हूँ, इसलिए मैं हूँ) के माध्यम से चेतना को आत्मा का प्रमाण माना, जो भौतिक शरीर से अलग है। यह द्वैतवादी दृष्टिकोण (Dualism) चेतना को एक अलौकिक तत्व के रूप में देखता है। हालांकि, इसकी आलोचना भौतिकवादी दार्शनिकों जैसे डैनियल डेनेट ने की जो चेतना को मस्तिष्क की जैविक प्रक्रियाओं का परिणाम मानते हैं। उनके अनुसार चेतना कोई स्वतंत्र “चीज़” नहीं, बल्कि न्यूरॉन्स की जटिल गतिविधियों का उप-उत्पाद है।

भारतीय दर्शन में, विशेष रूप से अद्वैत वेदांत में, चेतना (चित्) को परम सत्य माना गया है, जो शाश्वत और अपरिवर्तनीय है। यहाँ चेतना को व्यक्तिगत अहं से परे, ब्रह्म के साथ एकरूप माना जाता है। इस दृष्टिकोण की आलोचना यह हो सकती है कि यह वैज्ञानिक जांच के लिए अस्पष्ट और अमूर्त रहता है।

निष्कर्ष

चेतना एक ऐसी पहेली है जो दर्शन, विज्ञान और अध्यात्म के बीच संवाद को प्रेरित करती है। इसके गुण और लक्षण इसे अद्वितीय बनाते हैं परंतु इसके प्रकार और उत्पत्ति को लेकर मतभेद बने हुए हैं। दार्शनिक दृष्टि से चेतना न केवल आत्म-समझ का आधार है बल्कि वास्तविकता की प्रकृति को समझने का द्वार भी है। फिर भी इसकी पूर्ण व्याख्या अभी भी मानव बुद्धि की पहुँच से परे प्रतीत होती है, जो इसे एक अनंत अनुसंधान का विषय बनाए रखती है।

चेतना एक रहस्यमयी सत्ता है जो न केवल जीवन को अर्थ देती है, बल्कि आत्मबोध और मोक्ष जैसे उद्देश्यों की पूर्ति भी करती है। इसे न तो पूरी तरह वैज्ञानिक रूप से मापा जा सकता है और न ही पूरी तरह दार्शनिक रूप से परिभाषित किया जा सकता है। यह जीवन का मूल है “चेतना है, तो सब कुछ है।”

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