शंकर की भक्ति का अर्थ | शंकर द्वारा भक्ति की अवधारणा
Meaning of Shankar’s Devotion | Definition of Devotion | Meaning of Constancy | Bhakti Ki Paribhasha
| शंकर द्वारा भक्ति की अवधारणा |
भारतीय दर्शन में भक्ति को एक महत्वपूर्ण साधना के रूप में स्थान प्राप्त है। किंतु भक्ति का स्वरूप विभिन्न दर्शनों में भिन्न-भिन्न रूपों में प्रस्तुत हुआ है। शंकराचार्य, जो अद्वैत वेदांत के प्रमुख प्रवक्ता हैं, उनके दर्शन में भक्ति की भूमिका सीमित एवं साधनस्वरूप मानी गई है।
आदिशंकराचार्य (788-820 ई.) भारतीय दर्शन और धर्म के क्षेत्र में एक युग-प्रवर्तक व्यक्तित्व थे, जिन्हें अद्वैत वेदान्त का प्रणेता माना जाता है। उनकी शिक्षाओं में ज्ञानमार्ग को प्राथमिकता दी गई, परंतु भक्ति मार्ग का भी महत्वपूर्ण स्थान रहा। शंकराचार्य की भक्ति अवधारणा उनके दर्शन के साथ सामंजस्य बिठाते हुए एक अनूठा दृष्टिकोण प्रस्तुत करती है, जो उनके भाष्यों, स्तोत्र-साहित्य और उपदेशों में स्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है।
शंकर के भक्ति मार्ग की अवधारणा
शंकराचार्य का भक्ति मार्ग उनके अद्वैत वेदान्त के दार्शनिक ढांचे के अंतर्गत समझा जा सकता है। उनके अनुसार, भक्ति आत्म-ज्ञान और वैराग्य के साथ मिलकर मुक्ति का साधन है।
वैराग्यमान्मबोधो भक्तिश्चेति त्रयं गतितम्।
मुक्तेर्माधनमावांस्तत्र विग्नोपिपट्टुष्टता प्रोक्ता ॥ – विवेकचूड़ामणि
यहाँ भक्ति को ज्ञान की पूर्वावस्था या सहायक के रूप में देखा गया है, जो मन की शुद्धि और एकाग्रता को बढ़ावा देती है। शंकर ने भक्ति को दो स्तरों पर वर्गीकृत किया है –
स्थूल भक्ति और सूक्ष्म भक्ति (या पराभक्ति)।
- स्थूल भक्ति – यह भक्ति का प्रारंभिक रूप है, जो बाह्य आचरणों और कर्मकांडों से संबंधित है। इसमें वर्णाश्रम धर्म का पालन, भगवान की प्रतिमा पूजा, हरिदासों का संग, भगवत्कथा श्रवण, सत्य भाषण, तीर्थयात्रा और पवित्रता जैसे कार्य शामिल हैं। शंकर के अनुसार, ये साधन साधक के मन को शुद्ध करते हैं और उसे सूक्ष्म भक्ति की ओर ले जाते हैं।
- सूक्ष्म (पराभक्ति) – यह भक्ति का उच्चतर रूप है, जो अनन्य प्रेम और आत्म-समर्पण पर आधारित है। शंकर ने इसे नारद भक्ति सूत्र के संदर्भ में परिभाषित किया, जहाँ भक्ति को परम प्रेम और तन्मयता के रूप में देखा गया है। पराभक्ति में भक्त का चित्त भगवान में पूर्णतः लीन हो जाता है और वह सर्वत्र भगवद्-भाव का अनुभव करता है। यह अवस्था ज्ञान की पराकाष्ठा के समान है, जहाँ जीव और ब्रह्म का अभेद साक्षात्कार होता है।
शंकर ने भक्ति को सगुण और निर्गुण दोनों रूपों में स्वीकार किया। सगुण भक्ति में भक्त भगवान के साकार रूप (जैसे श्रीकृष्ण, शिव, या विष्णु) की उपासना करता है, जबकि निर्गुण भक्ति में निर्विशेष ब्रह्म का चिंतन किया जाता है।
निर्गुणमपि सत् ब्रह्म नामरूपगतैर्गुणैः
सगुणमुपासनार्थं तत्र तत्रोपदिश्यते। – ब्रह्मसूत्र भाष्य
यहाँ सगुण और निर्गुण भक्ति का समन्वय देखा जा सकता है, जहाँ सगुण उपासना साधक को निर्गुण ब्रह्म की ओर ले जाती है।
भक्ति का सामान्य तात्पर्य है – भगवान के प्रति प्रेम, श्रद्धा, और समर्पण की अवस्था से है|
- दार्शनिक दृष्टिकोण – भक्ति आत्मा और परमात्मा के मध्य एक आत्मीय सम्बन्ध है। यह केवल आस्था नहीं बल्कि मोक्ष का साधन भी है।
- भावात्मक दृष्टिकोण – यह प्रेम, करुणा, सहानुभूति और आत्मनिवेदन की भावना से ओतप्रोत होती है।
- आचरणात्मक दृष्टिकोण – भक्ति एक नैतिक जीवनशैली का रूप है जिसमें सेवा, त्याग और सत्कर्म की प्रधानता होती है।
- सांस्कृतिक दृष्टिकोण – भक्तिकालीन संतों जैसे तुलसीदास, सूरदास, कबीर आदि ने भक्ति को जनमानस में सरल, सुलभ और हृदयस्पर्शी मार्ग के रूप में स्थापित किया।
शंकराचार्य के भक्ति मार्ग की अवधारणा
शंकराचार्य अद्वैत वेदांत के जनक थे। उन्होंने भक्ति को पूर्णतः अस्वीकार नहीं किया परंतु उसे ज्ञान का एक सहयोगी माध्यम माना।
- भक्ति की भूमिका – वे भक्ति को साधन-चतुष्टय (विवेक, वैराग्य, षट्संपत्ति, मुमुक्षुता) के सहयोगी रूप में स्वीकारते हैं, जो ज्ञान के लिए आवश्यक हैं।
- ज्ञान के साथ समन्वय – शंकर की भक्ति अवधारणा अद्वैत दर्शन के मूल सिद्धांतों—”ब्रह्म सत्यं, जगन्मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापरः” के साथ संनादति है। उनके लिए भक्ति आत्म-ज्ञान का साधन है, जो अविद्या के आवरण को हटाकर जीव को ब्रह्म के साथ एकता का बोध कराती है। शंकर के अनुसार “भक्ति का चरम रूप आत्मा का आत्मा में लय हो जाना है।” शंकर के अनुसार “भक्ति का चरम रूप आत्मा का आत्मा में लय हो जाना है।”
- सगुण और निर्गुण का समन्वय – शंकर ने सगुण और निर्गुण भक्ति को एक दूसरे के पूरक के रूप में देखा। सगुण भक्ति साधक के लिए प्रारंभिक साधन है, जो मन को एकाग्र करता है, जबकि निर्गुण भक्ति ज्ञान की पराकाष्ठा है, जो जीव को पारमार्थिक सत्य की ओर ले जाती है।
- प्रेम और समर्पण – शंकर की भक्ति में प्रेम और समर्पण का विशेष महत्व है। उनके स्तोत्र, जैसे शिवानंदलहरी और विष्णुभक्तिस्तोत्र, भगवान के प्रति गहन प्रेम और भक्ति को दर्शाते हैं। उदाहरण के लिए, उनके द्वारा रचित श्लोक में गुरु और भगवान के प्रति भक्ति को समान महत्व दिया गया है:
यस्य प्रसादादहमेव विष्णुर्मय्येव सर्वं परिकल्पितं च।
इत्यं विजानामि सदा स्मरामि यस्यांघ्रियुग्मं प्रणतोऽस्मि नित्यम् ॥
- वर्णाश्रम धर्म का पालन – शंकर ने भक्ति को वर्णाश्रम धर्म के ढांचे में रखा, जिससे यह वैदिक परंपरा के अनुरूप रही। उनके अनुसार, साधक को अपने कर्तव्यों का पालन करते हुए भक्ति मार्ग पर अग्रसर होना चाहिए।
आलोचनात्मक विवेचना
- भक्ति का साधनात्मक सीमांकन – शंकराचार्य ने भक्ति को ज्ञान के पूरक के रूप में स्थान दिया। इससे भक्ति की स्वतंत्र साधना के रूप में प्रतिष्ठा कम हो जाती है। जबकि बाद के भक्ति आचार्य — जैसे रामानुज, माध्व और चैतन्य — भक्ति को मोक्ष का सीधा मार्ग मानते हैं।
- भावात्मक तत्त्व की न्यूनता – शंकराचार्य की भक्ति बौद्धिक है, भावात्मक नहीं। यह उच्च कोटि के वैराग्यशील, आत्मनिष्ठ साधकों के लिए उपयुक्त हो सकती है, परंतु सामान्य जनमानस के लिए यह कठिन और शुष्क प्रतीत होती है।
- सगुण भक्ति की उपेक्षा – उनका ईश्वर निर्गुण, निराकार ब्रह्म है, जिससे सगुण भक्तिवाद की अपेक्षा कम दिखती है। यह भक्तिकालीन संतों द्वारा प्रतिपादित राधा-कृष्ण या राम-भक्ति की भावना से भिन्न है, जहाँ प्रेम, समर्पण और लीला की प्रधानता होती है।
- व्यवहारिक जटिलता – शंकराचार्य की भक्ति दर्शन में समर्पण बौद्धिक रूप से जटिल है और आत्मानुभूति तक सीमित रहती है। जनसाधारण के लिए यह अनुभूति कठिन है।
- वैदिक संदर्भ – वेदों में भक्ति का स्वरूप प्रायः श्रद्धा और यज्ञ के रूप में प्रकट होता है। यह कर्मकांड से जुड़ा होने के कारण प्रारंभ में जटिल प्रतीत होता है, किन्तु इसका मूल भाव परमेश्वर के प्रति प्रेम और समर्पण है।
- उपनिषदों में भक्ति – उपनिषदों में भक्ति का स्वरूप अधिक आध्यात्मिक और प्रतीकात्मक है। यहाँ ज्ञान, कर्म और भक्ति का समन्वय देखने को मिलता है। उदाहरण के लिए, मुण्डक उपनिषद् (2.2.4) में प्रणव (ॐ) को धनुष और आत्मा को शर मानकर ब्रह्म की उपासना का वर्णन भक्ति की गहनता को दर्शाता है।
- वैष्णव दर्शन का योगदान – श्री चैतन्य द्वारा प्रचारित वैष्णव धर्म में भक्ति के पाँच भावों का वर्गीकरण भक्ति की व्यापकता और गहराई को प्रकट करता है। यह दर्शाता है कि भक्ति केवल एक धार्मिक क्रिया नहीं, बल्कि एक जीवन शैली है जो जीव को परमेश्वर से जोड़ती है।
- आलोचनात्मक दृष्टिकोण – कुछ विद्वानों जैसे शंकराचार्य ने भक्ति को ज्ञानमार्ग के अधीन माना है, जहाँ आत्मा और ब्रह्म की अभिन्नता पर बल दिया गया है। इसके विपरीत रामानुज का मत भक्ति को स्वतंत्र और परमेश्वर की कृपा पर आधारित मानता है, जो अधिक सहज और सर्वसुलभ है। रामानुज की व्याख्या भक्ति को एक व्यक्तिगत और भावनात्मक संबंध के रूप में प्रस्तुत करती है, जो शंकराचार्य की तुलना में अधिक स्पष्ट और संतोषजनक प्रतीत होती है।
शंकर की भक्ति अवधारणा आज भी प्रासंगिक है, क्योंकि यह ज्ञान और भक्ति का समन्वय प्रस्तुत करती है। उनकी शिक्षाएँ निम्नलिखित कारणों से महत्वपूर्ण हैं –
- सामाजिक एकता – शंकर ने चार पीठों की स्थापना के माध्यम से हिंदू धर्म को एक सूत्र में बांधने का प्रयास किया, जिसमें भक्ति का महत्वपूर्ण योगदान था। उनके स्तोत्र और भक्ति साहित्य ने विभिन्न संप्रदायों को एक मंच पर लाने में मदद की।
- आध्यात्मिक संतुलन – शंकर की भक्ति अवधारणा ज्ञान और प्रेम का संतुलन स्थापित करती है, जो आधुनिक युग में तनावग्रस्त जीवन के लिए उपयोगी है।
- सर्वसुलभता – यद्यपि शंकर की भक्ति वैदिक ढांचे में बंधी है, परंतु उनके स्तोत्र और उपदेश जनसामान्य के लिए प्रेरणादायी हैं, जैसे भज गोविंदम में सरल भक्ति का उपदेश दिया गया है।
शंकर की भक्ति अवधारणा की कुछ सीमाएँ भी हैं –
- ज्ञान पर निर्भरता – उनकी भक्ति ज्ञान की अधीन है, जिसके कारण यह सामान्य जन के लिए जटिल हो सकती है। चैतन्य या रामानुज की भक्ति की तुलना में यह कम सहज और भावनात्मक है।
- सगुण भक्ति की अस्थायिता – शंकर द्वारा सगुण भक्ति को अविद्या जन्य मानना वैष्णव संप्रदायों के लिए स्वीकार्य नहीं है, क्योंकि वे सगुण भगवान को ही परम सत्य मानते हैं।
- वर्णाश्रम पर जोर – शंकर की भक्ति में वर्णाश्रम धर्म का पालन अनिवार्य है, जो आधुनिक संदर्भ में कुछ हद तक प्रासंगिकता खो चुका है।
निष्कर्ष
शंकराचार्य की भक्ति अवधारणा अद्वैत वेदान्त के दार्शनिक ढांचे में एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है। शंकर ने भक्ति को ज्ञान की प्राप्ति का उपकरण माना जबकि भक्तिकाल के संतों ने भक्ति को स्वयं में पूर्ण और अंतिम साधना के रूप में प्रतिष्ठित किया।
शंकर के दर्शन में भक्ति एक सैद्धांतिक और आध्यात्मिक स्तर पर गहन है, परंतु यह मार्ग भावनात्मक सहजता और सगुण आस्था से रहित प्रतीत होता है। अतः शंकराचार्य की भक्ति पद्धति दार्शनिकों और वैराग्यशील साधकों के लिए उपयुक्त है, किंतु व्यापक जनसमूह की आत्मिक आकांक्षा की पूर्ति वह नहीं कर पाती।