आध्यात्मिकता का अर्थ | आध्यात्मिकता का भाव
Meaning of Spirituality | Definition of Spirituality | Spirituality ki Paribhasha
आध्यात्मिकता एक व्यापक और बहुआयामी अवधारणा है जो आत्मा, चेतना, जीवन के उद्देश्य, नैतिकता, ध्यान और ब्रह्मांड में हमारी भूमिका को समझने की एक गहन प्रक्रिया है। इसका उद्देश्य मानव अस्तित्व की गहरी समझ विकसित करना और आत्मा की उन्नति की दिशा में बढ़ना है। यह भौतिक सुख-सुविधाओं से परे जाकर आंतरिक संतोष और जीवन के गहरे अर्थ को खोजने की यात्रा है। मानसिक शांति की खोज के अलावा भी यह केवल धार्मिक आस्था तक सीमित नहीं है, बल्कि व्यक्ति की आत्म-जागरूकता, सत्य की खोज और आत्म-साक्षात्कार से भी जुड़ी हुई है। पुरातन काल से लेकर आज आधुनिक काल में भी विभिन्न दार्शनिकों, विचारकों और वैज्ञानिकों ने आध्यात्मिकता को भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से समझाने की कोशिश की है। आध्यात्मिकता के विभिन्न आयाम इसे एक समग्र और सार्वभौमिक अवधारणा बनाते हैं, जो जीवन को अर्थ और गहराई प्रदान करती है और हम इसे समझकर अपने जीवन को संतुलित और सार्थक भी बना सकते हैं। विभिन्न आयामों में व्यक्तिगत, सामाजिक, दार्शनिक, वैज्ञानिक और मनोवैज्ञानिक पहलू शामिल हैं।
आध्यात्मिकता: बहुआयामी खोज की तरफ एक कदम
आध्यात्मिकता वह गहन प्रक्रिया है जो आत्मा को उसके मूल स्रोत से जोड़ने, स्वयं की पहचान को समझने और जीवन को नैतिकता के अर्थ से समृद्ध करने का प्रयास करती है। यह आत्म-चेतना का वह प्रकाश है जो “मैं कौन हूँ?” जैसे अनेकों प्रश्नों के उत्तर खोजता है। उनमें से कुछ निम्नांकित हैं ………
- आत्मा का ब्रह्म से साक्षात्कार
आदि शंकराचार्य (अद्वैत वेदांत) ने आध्यात्मिकता को आत्मा (आत्मन्) और ब्रह्म (परम सत्य) के अभेद का अनुभव बताया। उनके अनुसार, “अहं ब्रह्मास्मि” (मैं ब्रह्म हूँ) इस साक्षात्कार का आधार है। माया (भ्रम) के परे आत्मा अपनी शुद्ध अवस्था में ब्रह्म के साथ एक हो जाती है। एक अन्य महावाक्य “ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापरः” (ब्रह्म सत्य है, जगत माया है, और जीवात्मा एवं परमात्मा एक ही हैं)। में भी यही उल्लेख मिलता है।
- एक साधक गहन ध्यान में डूबकर “मैं शरीर नहीं, आत्मा हूँ” का अनुभव करता है और ब्रह्म की सर्वव्यापी चेतना से जुड़ता है।
- यह संदर्भ आध्यात्मिकता को पारलौकिक एकता से जोड़ता है, जहाँ व्यक्तिगत अहंकार विलीन हो जाता है।
- रामानुजाचार्य (विशिष्टाद्वैत वेदांत) – आत्मा और ब्रह्म अलग-अलग होते हुए भी एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं।
- भक्ति को आध्यात्मिकता का सर्वोच्च साधन माना।
कबीरदास – कबीर ने आध्यात्मिकता को ईश्वर के साथ प्रेमपूर्ण और व्यक्तिगत संबंध के संदर्भ में परिभाषित किया। उनके लिए, ईश्वर निर्गुण (निराकार) और हृदय में वास करने वाला था। आध्यात्मिकता सादगी, आत्म-चिंतन और प्रेम में थी, जो कर्मकांडों और धार्मिक विभेदों से परे थी। यह भक्ति और सूफी भावनाओं का मेल थी।
- “जल में कुंभ, कुंभ में जल है, बाहर भीतर पानी। फूटा कुंभ जल जलहि समाना, यह तथ कथौ गियानी।”
- “मोको कहाँ ढूँढे रे बन्दे, मैं तो तेरे पास में।”
- कबीर ने आध्यात्मिकता को आंतरिक खोज, सरलता और प्रेम के रूप में परिभाषित किया।
- सत्य एवं स्वयं के भीतर की यात्रा
जिद्दू कृष्णमूर्ति (Jiddu Krishnamurti) ने आध्यात्मिकता को संगठित धर्म और बाहरी गुरुओं से मुक्त, स्वयं की पूर्ण जागरूकता और सत्य की खोज बताया। उनके लिए यह विचारों से परे प्रत्यक्ष अनुभव और मन की शांति है। वे कहते हैं, “सत्य को खोजने के लिए मन को सभी पूर्वाग्रहों से मुक्त करना होगा।”
- वे कहते हैं, “सत्य एक पथविहीन भूमि है,” जो स्वयं की खोज से प्राप्त होता है। अपनी पुस्तक “The First and Last Freedom” (1954) में वे आत्म-निरीक्षण और स्वतंत्रता पर बल देते हैं।
- एक व्यक्ति जो रोज़ सुबह शांत बैठकर अपने विचारों को देखता है, वह भीतर की गहराई में उतरता है और आत्म-जागरूकता प्राप्त करता है।
- यह आयाम आध्यात्मिकता को व्यक्तिगत और स्वतंत्र बनाता है, जो बाहरी गुरुओं या ग्रंथों पर निर्भर नहीं है।
- माइंडफुलनेस और आत्म-चिंतन की लोकप्रियता कृष्णमूर्ति के विचारों से प्रेरित है।
पतंजलि योगसूत्र के माध्यम से आध्यात्मिकता को आत्म-नियंत्रण और आत्म-साक्षात्कार के विज्ञान के रूप में परिभाषित किया। उनके लिए आध्यात्मिकता का मूल “योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः” (योग चित्त की वृत्तियों का निरोध है)।
- जो योग के आठ अंगों—यम (नैतिक संयम), नियम (आत्म-अनुशासन), आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि—के अभ्यास से प्राप्त होता है।
- पतंजलि का दृष्टिकोण व्यावहारिक और व्यवस्थित था, जिसमें आध्यात्मिकता का लक्ष्य आत्मा (पुरुष) को प्रकृति (प्रकृति) से मुक्त करना और उसकी शुद्ध अवस्था में ले जाना था।
सुकरात (Socrates) के अनुसार आत्म-ज्ञान ही आध्यात्मिकता का मूल है। सुकरात ने आध्यात्मिकता को आत्म-ज्ञान (“अपने आप को जानो”) और नैतिक जीवन के संदर्भ में परिभाषित किया। उनके लिए, सच्ची आध्यात्मिकता आत्मा की देखभाल और उसे गुणवान बनाने में निहित थी।
- आत्मा अमर है और इसका उद्देश्य सत्य और अच्छाई की खोज करना है, जो संवाद, प्रश्न और आत्म-परीक्षण के माध्यम से संभव है। उनकी आध्यात्मिकता बाहरी कर्मकांडों से परे, आत्मिक और बौद्धिक खोज पर केंद्रित थी।
- सुकरात का मानना था कि “Know Thyself” (स्वयं को जानो)।
- नैतिकता का उत्थान [व्यावहारिक आयाम]
महात्मा गांधी ने आध्यात्मिकता को नैतिकता और सत्य के साथ जोड़ा। उनके लिए अहिंसा और सेवा आध्यात्मिक जीवन के आधार थे। वे मानते थे कि आत्मा की शुद्धि नैतिक आचरण से होती है।
- “हिंद स्वराज” में गांधी नैतिकता को आध्यात्मिकता का व्यावहारिक रूप मानते हैं।
- एक व्यक्ति जो झूठ बोलना छोड़कर सत्य का पालन करता है या गरीबों की मदद करता है, वह नैतिकता के उत्थान को जीता है।
- यह संदर्भ आध्यात्मिकता को सामाजिक और व्यावहारिक बनाता है, जो व्यक्तिगत शुद्धि को समाज से जोड़ता है।
अरस्तु (Aristotle) ने आध्यात्मिकता को “यूडेमोनिया” (सुखमय जीवन या परम कल्याण) के संदर्भ में देखा। उनके लिए, यह एक ऐसा जीवन था जो नैतिक गुणों (जैसे साहस, संयम) और बौद्धिक चिंतन (थियोरेिया) के संतुलन से प्राप्त होता है। अरस्तु का मानना था कि मानव आत्मा का उच्चतम कार्य तर्क और चिंतन है, जो उसे दिव्यता के करीब ले जाता है। उनके दृष्टिकोण में आध्यात्मिकता जीवन का एक तर्कसंगत और उद्देश्यपूर्ण पहलू थी, जो व्यक्तिगत पूर्णता की ओर ले जाती थी।
- “अच्छा जीवन वह है, जिसमें सद्गुणों का अभ्यास हो।”
- उन्होंने आध्यात्मिकता को नैतिकता और सद्गुणों के अभ्यास से जोड़ा।
जॉन स्टुअर्ट मिल एक उपयोगितावादी दार्शनिक, ने आध्यात्मिकता को स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं किया, लेकिन उनके विचारों में यह नैतिकता, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और मानव कल्याण के संदर्भ में झलकती है। उनके लिए, जीवन का उच्चतम उद्देश्य “सर्वाधिक लोगों के लिए सर्वाधिक सुख” था। आध्यात्मिकता उनके दृष्टिकोण में एक ऐसी भावना के रूप में देखी जा सकती है जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सामूहिक भलाई को प्रेरित करती है। मिल के लिए, यह तर्कसंगत चिंतन और नैतिक जीवन से जुड़ी थी, न कि किसी अलौकिक विश्वास से।
- “व्यक्ति की स्वतंत्रता और नैतिकता का विकास आध्यात्मिकता का आधार है।”
- उन्होंने व्यक्तिगत स्वतंत्रता और नैतिकता को आत्म-विकास के रूप में देखा।
- स्वयं का आत्म-विश्लेषण | व्यक्तित्व और चेतना [मनोवैज्ञानिक आयाम]
कार्ल गुस्ताव जंग ने आध्यात्मिकता को आत्म-विश्लेषण और व्यक्तित्व के समग्र विकास (Individuation) से जोड़ा। उनके अनुसार, यह आत्मा की गहराई में छिपे प्रतीकों (Archetypes) और सामूहिक अचेतन (Collective Unconscious) को समझने की प्रक्रिया है। जो आत्मा को उसकी पूर्णता तक ले जाती है। एक व्यक्ति जो माइंडफुलनेस ध्यान करता है और अपने विचारों को निरीक्षण करता है, वह इस आयाम का अनुभव करता है। अपनी पुस्तक “The Archetypes and the Collective Unconscious” (1959) व “Psychology and Religion” (1938) में वे कहते हैं कि आध्यात्मिकता चेतना का वह पहलू है जो जीवन को अर्थ और गहराई देता है।
- एक व्यक्ति जो अपने सपनों का विश्लेषण करता है और उनमें छिपे संदेशों को समझता है, वह आत्म-विश्लेषण के माध्यम से आध्यात्मिकता को अनुभव करता है।
- यह आयाम आध्यात्मिकता को मनोवैज्ञानिक गहराई देता है, जो आधुनिक जीवन में प्रासंगिक व तनाव से मुक्ति भी दिलाता है। यह आंतरिक संघर्षों को सुलझाने और आत्म-स्वीकृति को बढ़ावा देता है।
महात्मा बुद्ध ने आध्यात्मिकता को दुख से मुक्ति और निर्वाण की प्राप्ति के संदर्भ में देखा। उनके चार आर्य सत्य—दुख, दुख का कारण (तृष्णा), दुख का निवारण और अष्टांगिक मार्ग—आध्यात्मिकता का आधार हैं। बुद्ध के लिए आध्यात्मिकता व्यक्तिगत अनुभव और आत्म-जागरूकता पर केंद्रित थी, जो नैतिक जीवन (शील), ध्यान (समाधि) और प्रज्ञा (ज्ञान) के माध्यम से विकसित होती है। यह किसी बाहरी ईश्वर पर निर्भर नहीं, बल्कि आत्म-परिवर्तन पर आधारित थी।
- महात्मा बुद्ध ने आत्मज्ञान प्राप्त करने के लिए सांसारिक जीवन त्यागकर ध्यान और आत्मचिंतन का मार्ग अपनाया।
- “अप्प दीपो भव” (स्वयं के दीपक बनो) ।
स्वामी विवेकानंद ने आत्मज्ञान और मानवता की सेवा को आध्यात्मिकता का केंद्र माना और आत्म-साक्षात्कार को सर्वोच्च लक्ष्य बताया और कहा, “उठो, जागो और तब तक मत रुको जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाए।”
- “मैं कौन हूँ?” की खोज
रमण महर्षि ने इस प्रश्न को आध्यात्मिकता का मूल माना। उनकी “आत्म-विचार” पद्धति में व्यक्ति “मैं कौन हूँ?” पूछकर अहंकार को छोड़ता है और शुद्ध चेतना तक पहुँचता है। (Who Am I?) में रमण इस तकनीक को समझाते हैं।
- एक साधक जो इस प्रश्न को बार-बार मनन करता है और अंततः “मैं न शरीर हूँ, न मन, केवल चेतना हूँ” का अनुभव करता है।
- यह संदर्भ आध्यात्मिकता को आत्म-पहचान का सबसे प्रत्यक्ष मार्ग बनाता है, जो सीधे सत्य तक ले जाता है।
भगवद गीता – “न जायते म्रियते वा कदाचिन, नायं भूत्वा भविता वा न भूयः” (आत्मा न जन्म लेती है, न मरती है)।
- प्रकृति से संनाद: [प्राकृतिक आयाम]
ताओवादी दार्शनिक लाओत्से ने “ताओ ते चिंग” में प्रकृति के साथ एकता को आध्यात्मिकता का आधार माना।
- आध्यात्मिकता का एक महत्वपूर्ण पहलू प्रकृति के साथ एकता का अनुभव है। यह मानता है कि आत्मा और प्रकृति एक ही चेतना के अंग हैं।
- एक साधक हिमालय की चोटी पर बैठकर सूर्योदय देखता है और प्रकृति की विशालता में अपनी आत्मा को पाता है। मूल अमेरिकी परंपराओं में पृथ्वी को “माँ” मानकर उसकी पूजा करना भी इसका उदाहरण है।
- यह आयाम पर्यावरणीय चेतना को जागृत करता है और मानव को प्रकृति के प्रति विनम्र बनाता है।
- सामाजिक न्याय व सेवा:
मार्टिन लूथर किंग जूनियर सामाजिक न्याय और समानता को आध्यात्मिकता का अभिन्न अंग माना।
- “सत्य, न्याय और प्रेम आध्यात्मिकता के मूल स्तंभ हैं।”
- प्रकृति व मानवता का सामंजस्य
रवीन्द्रनाथ टैगोर की आध्यात्मिकता भारतीय वेदांत दर्शन, प्रकृति प्रेम और मानवीय भावनाओं से प्रेरित थी। उन्होंने इसे प्रकृति, कला, संगीत और मानवीय संबंधों में ईश्वर की अनुभूति के रूप में देखा।
- उन्होंने ईश्वर को किसी विशेष धार्मिक रीति-रिवाज में बाँधने के बजाय उसे मानवता और प्रकृति में देखा।
- उनके गीतों, कविताओं और कहानियों में आध्यात्मिकता प्रेम, करुणा और अस्तित्व के आनंद से जुड़ी है।
- उनकी कृति “गीतांजलि” में उन्होंने लिखा “Where the mind is without fear and the head is held high, where knowledge is free…”
- (जहाँ मन भयमुक्त हो और सिर ऊँचा हो, जहाँ ज्ञान स्वतंत्र हो…) यह उनकी मानवतावादी आध्यात्मिकता को दर्शाता है।
- प्रेम, ईश्वर और भक्ति (धार्मिक आयाम)
रूमी की आध्यात्मिकता सूफ़ी दर्शन से प्रेरित थी, जहाँ प्रेम, आत्मा की खोज, आत्मा का ईश्वर या परम शक्ति के साथ संबंध स्थापित करने का मार्ग है। अपनी कविता में लिखा, “मैं उस प्रिय की तलाश में हूँ जो मेरे भीतर और बाहर है।”
- उन्होंने प्रेम को आध्यात्मिकता का सर्वोच्च रूप माना।
- उनके अनुसार, आध्यात्मिकता का अर्थ स्वयं के अहंकार को छोड़कर ईश्वर के प्रेम में लीन हो जाना है।
- उन्होंने कहा “You were born with wings, why prefer to crawl through life?”
(तुम पंखों के साथ जन्मे हो, फिर जीवन में रेंगना क्यों पसंद करते हो?)
यह आत्मबोध और आंतरिक मुक्ति की ओर इशारा करता है। - उनके अनुसार, आध्यात्मिकता बाहरी अनुष्ठानों में नहीं, बल्कि हृदय की गहराइयों में ईश्वर की खोज में है।
- इसी तरह, एक भक्त मंदिर में “हरे कृष्ण” मंत्र जपते हुए भक्ति में लीन हो जाता है।
- यह आयाम प्रेम और समर्पण के माध्यम से आध्यात्मिकता को व्यक्त करता है, जो व्यक्ति को ईश्वरीय चेतना से जोड़ता है।
- समुदाय और सेवा [सामाजिक आयाम]
- आध्यात्मिकता व्यक्तिगत से परे सामूहिक चेतना और सेवा से भी जुड़ी है। यह मानवता के प्रति प्रेम और एकता को प्रोत्साहित करती है।
- मदर टेरेसा ने गरीबों की सेवा को अपनी आध्यात्मिकता का आधार बनाया। एक समुदाय जो मिलकर भजन-कीर्तन करता है, वह सामूहिक आध्यात्मिकता का अनुभव करता है।
- यह आयाम आध्यात्मिकता को सामाजिक बंधन और परोपकार से जोड़ता है, जो समाज को समृद्ध करता है।
- अस्तित्व की खोज
मार्टिन हाइडेगर (Martin Heidegger) ने आध्यात्मिकता को “होने” (Being) की प्रामाणिक खोज के रूप में देखा। उनके लिए यह तकनीकी और भौतिकवादी युग में “होने के प्रश्न” (Question of Being) को पुनर्जनन करने की प्रक्रिया है। वे मानते थे कि आधुनिकता ने मानव को उसके मूल अस्तित्व (Dasein) से विमुख कर दिया है, और आध्यात्मिकता उसे वापस उसकी प्रामाणिकता की ओर ले जाती है।
- “Being and Time” (1927) में वे Dasein की अवधारणा प्रस्तुत करते हैं, जो आत्म-चिंतन और अस्तित्व की गहराई से जुड़ा है।
- आधुनिक व डिजिटल युग में लोग जब तकनीक से ऊबकर प्रकृति या शांति की खोज करते हैं, तो यह हाइडेगर के विचारों का प्रतिबिंब है।
- व्यक्तिगत स्वतंत्रता एवं आत्मनिर्माण
जीन-पॉल सार्त्र (Jean-Paul Sartre) अस्तित्ववादी दार्शनिक ने आध्यात्मिकता को ईश्वर-केंद्रित संदर्भ से हटाकर व्यक्तिगत स्वतंत्रता और आत्म-निर्माण से जोड़ा। उनके लिए यह वह प्रक्रिया है जिसमें व्यक्ति अपनी पूर्ण स्वतंत्रता को स्वीकार करता है और अपने जीवन का अर्थ स्वयं रचता है। “ईश्वर की अनुपस्थिति” में आध्यात्मिकता मानव की जिम्मेदारी और रचनात्मकता बन जाती है।
- “Being and Nothingness” (1943) में वे कहते हैं, “मनुष्य को अपनी नियति स्वयं बनानी होगी।”
- यह विचार उन लोगों में प्रतिबिंबित होता है जो धर्म को छोड़कर व्यक्तिगत मूल्यों और नैतिकता के आधार पर जीवन जीते हैं।
- सर्व-एकता
केन विल्बर ने अपनी “इंटीग्रल थ्योरी” के माध्यम से आध्यात्मिकता को चेतना के विकास के उच्चतम स्तर के रूप में परिभाषित किया। उनके अनुसार, यह व्यक्तिगत, सामाजिक और पारलौकिक आयामों का समन्वय है, जो विज्ञान और धर्म के बीच सेतु बनाती है। आध्यात्मिकता “सर्व-एकता” (All-Quadrrant, All-Level) की ओर ले जाती है।
- A Theory of Everything” (2000) में वे आध्यात्मिकता को एक समग्र दृष्टिकोण के रूप में प्रस्तुत करते हैं।
- न्यू एज आंदोलन और समग्र स्वास्थ्य (Holistic Wellness) में विल्बर का प्रभाव देखा जा सकता है।
- ईश्वर के साथ एकता [वैज्ञानिक आयाम]
पियरे तेयार दे शार्दाँ (Pierre Teilhard de Chardin) ने आध्यात्मिकता को विकासवादी प्रक्रिया का हिस्सा माना, जिसमें चेतना का विकास “ओमेगा पॉइंट” (ईश्वर के साथ एकता) की ओर बढ़ता है। उनके लिए यह विज्ञान और आध्यात्मिकता का संश्लेषण है, जहाँ मानव और ब्रह्मांड एक सामूहिक चेतना में संनाद करते हैं।
- “The Phenomenon of Man” (1955) में वे इस विचार को विस्तार देते हैं।
- आधुनिक समय में न्यूरोसाइंस और क्वांटम भौतिकी में चेतना के अध्ययन में उनके विचारों की झलक मिलती है।
- जीवन का उत्सव और चेतना का विस्तार
ओशो के लिए आध्यात्मिकता जीवन से पलायन नहीं, बल्कि उसे पूर्णता से जीने का तरीका है। वे इसे आत्म-जागरूकता (साक्षी भाव), प्रेम, और काम (सेक्सुअलिटी) के रूपांतरण से जोड़ते हैं। ओशो कहते हैं, “आध्यात्मिकता मृत्यु की तैयारी नहीं, जीवन का नृत्य है।” उनके विचार में यह संगठित धर्म से मुक्त, व्यक्तिगत अनुभव और चेतना के विस्तार पर आधारित है। “The Book of Secrets” और “From Unconsciousness to Consciousness” पुस्तकें में इसका उल्लेख है|
- जीवन को “ज़ोरबा द बुद्धा” के रूप में संतुलित करना—भौतिक सुख और आध्यात्मिक जागरूकता का मेल।
- ध्यान और नृत्य जैसे व्यावहारिक उपकरणों से चेतना को ऊँचा उठाना।
- उनकी “डायनामिक मेडिटेशन” जिसमें शारीरिक ऊर्जा को मुक्त कर शांति प्राप्त की जाती है।
- आत्म-ज्ञान और वेदांत की शुद्धता
आचार्य प्रशांत आध्यात्मिकता को वेदांत के आधार पर आत्मा की शुद्ध खोज और अहंकार से मुक्ति के रूप में देखते हैं। उनके लिए यह “मैं कौन हूँ?” का उत्तर खोजना और माया (भ्रम) से परे सत्य को जानना है। वे कहते हैं, “आध्यात्मिकता मन की गुलामी से मुक्ति और आत्मा की स्वतंत्रता है।” यहाँ आध्यात्मिकता जीवन की गहराई को समझने और नैतिकता को आत्मसात करने का मार्ग है।
- जीवन के प्रत्येक पहलू में सत्य और विवेक का प्रयोग।
- भौतिकता और इच्छाओं से ऊपर उठकर आत्म-चेतना में स्थिर होना।
- एक व्यक्ति जो अपने दैनिक कार्यों में स्वार्थ छोड़कर निःस्वार्थ भाव से कार्य करता है, वह आचार्य प्रशांत की आध्यात्मिकता को जीता है।
- उनकी पुस्तकें जैसे “अद्वैत में जीवन” और उनके व्याख्यान (उपनिषद्, गीता पर आधारित)।
आध्यात्मिकता एक बहुआयामी प्रकाश है जो दर्शन से लेकर व्यवहार, प्रकृति से लेकर समाज तक फैला हुआ है। यह आत्मा की खोज का वह मार्ग है जो व्यक्ति को स्वयं से जोड़ता है, और फिर उसे ईश्वर, प्रकृति व मानवता से एकाकार करता है। चाहे वह ध्यान में बैठा साधक हो, भक्ति में डूबा भक्त हो या सेवा में लगा कार्यकर्ता—हर कोई अपने तरीके से आध्यात्मिकता को जीता है। यह जीवन का वह सार है जो हमें भौतिकता से ऊपर उठाकर शाश्वत शांति और संतोष की ओर ले जाता है।
इस लेख में मौजूदा वर्तमान जगत की विचारधारा या फिर अत्यधिक प्रचलित विचारधारों को व्यवस्थित करने का प्रयास किया है| जिसमें यह जानने की कोशिश है की अध्यात्म वास्तव में है क्या, इसकी रूपरेखा क्या है और इसको परिभाषित करने का आधार क्या है| जहां इसकी वस्तुनिष्ठ और तर्कसंगत व्याख्या दी जा सके या दूसरे शब्दों में विभिन्न तरह की विविधताओं के रहते हुये सर्वसम्मत या सर्व स्वीकार्य या सर्वव्यापक रूप दिया जा सके| अगले कुछ लेख में और अधिक गहन और सारगर्भित ज्ञान प्राप्ति की तरफ आगे बढ़ने का प्रयास करेंगे|
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आध्यात्मिकता का अर्थ | आध्यात्मिकता का भाव
शेष अगले अंक ……
“मैं” को पूर्ण रूप से गुरुचरणों में समर्पित कर दिया है अब अद्वैत ………
मानस 【 गुरुवर की चरण धूलि 】