दान की परिभाषा | दान क्या है
Definition of Donation | Meaning of Gift | Dan Ki Paribhasha
“” दान “”
“” अनपेक्षित फलेच्छा में दूसरे के उपयोग को ध्यान रखते हुए निजी हितों में से कुछ का अर्पण कर देना ही दान कहलाता है। “”
“” प्राणी के आत्मसम्मान सरंक्षण में थोड़ा सा भार वहन करना ही दान है। “”
“” किसी की थोड़ी सी इच्छापूर्ति में उपहार स्वरूप तनिक भर सौंपना ही दान है। “”
सामान्य परिप्रेक्ष्य में –
वैसे “” द “” से दुःख दारूण
“” न “” से नियंत्रित
“” किसी के दुःख दारूण को जो नियंत्रित कर दे वह दान ही है।””
वैसे “” द “” से दशा और दिशा
“” न “” से नापतौल
“” किसी की दशा और दिशा का नापतौल जो ठीक कर दे वही दान कहलाता है।””
सामान्य परिप्रेक्ष्य में –
“” दया भाव में सामर्थ्य के अनुसार किया गया सहयोग भी तो दान कहलाता है। “”
“” करुणामयी हृदय से की गई सहायता भी तो दान ही है। “‘
—- “” परहित आकांक्षा में की गई भेंट भी दान ही है। “” —-
“” स्वाभिमानी पुरूष को दान देना अच्छा लगता है परन्तु दान लेना नहीं ,
यानि दान अकर्मण्यता, अपुरुषार्थ व असामर्थ्यता को परिलक्षित करती मानसिक वेदना का द्योतक है। “”
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दान की परिभाषा | दान क्या है
मानस जिले सिंह
【 यथार्थवादी विचारक】
अनुयायी – मानस पँथ
उद्देश्य – सामाजिक व्यवहारिकता को सरल , स्पष्ट व पारदर्शिता के साथ रखने में अपनी भूमिका निर्वहन करना।
सटीक व्याख्या 👌👌👌
इस व्यस्तता भरी जिंदगी में सबसे बड़ा दान,
समय का दान है,,
फिर चाहे वो अपने लिए हो या अपनों के लिए।।
भगवान श्री कृष्ण सात्विक, राजसिक और तामसिक दान के लक्षण बताते हुए कहते हैं—
दातव्यमिति यद्दानं दीयतेऽनुपकारिणे ।
देशे काले च पात्रे च तद्दानं सात्त्विकं स्मृतम् ॥
जो दान कर्तव्य समझकर, बिना किसी उपकार की भावना से, उचित स्थान में, उचित समय पर और योग्य व्यक्ति को ही दिया जाता है, उसे सात्त्विक (सतोगुणी) दान कहा जाता है।
यत्तु प्रत्युपकारार्थं फलमुद्दिश्य वा पुनः ।
दीयते च परिक्लिष्टं तद्दानं राजसं स्मृतम् ॥
किन्तु जो दान बदले में कुछ पाने की भावना से अथवा किसी प्रकार के फल की कामना से और बिना इच्छा के दिया जाता है, उसे राजसी (रजोगुणी) दान कहा जाता है।
अदेशकाले यद्दानमपात्रेभ्यश्च दीयते ।
असत्कृतमवज्ञातं तत्तामसमुदाहृतम् ॥
जो दान अनुचित स्थान में, अनुचित समय पर, अज्ञानता के साथ, अपमान करके अयोग्य व्यक्तियों को दिया जाता है, उसे तामसी (तमोगुणी) दान कहा जाता है।
अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं च यत् ।
असदित्युच्यते पार्थ न च तत्प्रेत्य नो इह ॥
हे पृथापुत्र अर्जुन ! बिना श्रद्धा के यज्ञ, दान और तप के रूप में जो कुछ भी सम्पन्न किया जाता है, वह सभी “असत्” कहा जाता है, इसलिए वह न तो इस जन्म में लाभदायक होता है और न ही अगले जन्म में लाभदायक होता है।
तुलसीदास जी कहते हैं— श्रद्धा और प्रसन्नता पूर्वक दान करने से हमारा धन घटता नहीं बल्कि शुक्ल पक्ष के चंद्रमा की तरह धीरे-धीरे बढ़ता रहता है।
तुलसी पंछिन के पिये, घटे न सरिता-नीर ।
दान दिये धन ना घटे, जो सहाय रघुवीर ।।—– डॉ सरला जागिड