गुरुदेव के प्रति वंदना | गुरुदेव का अर्थ
Meaning of Gurudev | Definition of Gurudev | Gurudev Ki Paribhasha
| Committed to Gurudev |
| गुरुदेव के प्रति वंदना |
सुना व देखा पीड़ा में जब हर बार किसी को ,
आँसुओं की जगह हम सिर्फ लहू की टपकती हुई बूंद देखते हैं ;
क्रूरता भरे अन्याय के आक्रोश को रगों से फिर उतारा जो ,
कलम से निकला हर हर्फ़ अब हम न्याय की गुहार भरे सिर्फ दर्द ही लिखते हैं ;
सच कहता हूँ मानस जैसे जिसके मित्र होते हैं ,
ठीक वैसा ही नहीं उसका चरित्र मिलताजुलता जरूर होता है ;
इसीलिए पुराने बुजुर्ग कुल को जानके ही रिश्ता ,
चाहे पानी साफ कितना भी हो उसे छान कर ही जो पीते हैं ;
सौभाग्य से गुरू भी हमें ऐसे ही निर्मोही कर्मयोगी संत जो मिले ,
हर असहाय के प्रश्नों का हल खोजने में लगे रहते हैं,
सब कहते हैं ये मानवीय मूल्यों की जीती जागती मिसाल हैं ,
पर सच कहूँ तो साधारण से प्राणी में असाधारण व्यक्तित्व छुपा भी देखते हैं ;
ऐसे परमश्रद्धेय गुरुदेवों की हल्की सी छाया मुझ पर जो पड़ी ,
हर किसी मुख्लिस के दर्द की आवाज बनने को जी चाहता है ;
निजी जिम्मेदारी की वजह से करता हूँ टालने की कोशिश मैं बहुत बड़ी ,
फिर न जाने क्यूँ हर मजलूम का दर्द मानस “” मेरा अपना ही मर्म बन जाता है “” ;
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गुरुदेव के प्रति वंदना | गुरुदेव का अर्थ
मानस जिले सिंह
【यथार्थवादी विचारक 】
अनुयायी – मानस पंथ
उद्देश्य – मानवीय मूल्यों की स्थापना हेतु प्रकृति के नियमों का यथार्थ प्रस्तुतीकरण में संकल्पबद्ध योगदान देना।
सतत रूप से कुछ सीखने की जिज्ञासा या प्रयास एक अच्छे विद्यार्थी का गुण है । और मैं जीवन पर्यंत विद्यार्थी ही बनी रहना चाहती हूं।,- प्रोफेसर सरला जांगिड़
गुकारस्त्वन्धकारस्तु रुकार स्तेज उच्यते।
अन्धकार निरोधत्वात् गुरुरित्यभिधीयते॥
अर्थात् ‘गु’कार यानी अंधकार, और ‘रु’कार यानी तेज। जो अंधकार को ज्ञान का प्रकाश देकर निरोध करता है, वही गुरु कहा जाता है।
पुरातनकाल कहें या आदिकाल कितना सामयिक, सकारात्मक, प्रांसगिक और उपयोगी था। मनुष्य अपने जीवन की प्रारंभिक अवस्था में सिर्फ शिक्षा ग्रहण करता था । जीवन की उस अवस्था को ब्रह्मचर्य आश्रम कहा जाता था ।फिर गृहस्थ आश्रम,वानप्रस्थ और अंत सन्यास आश्रम। जीवन के काल को उस समय की जरूरतों के अनुसार बांटा गया था, जो कि सही भी था । पुरातन काल के गुरु आध्यात्मिक,व्यवहारिक पौराणिक, शास्त्रीय, शस्त्रीय शिक्षा अपने शिष्यों को देते थे । जीवन का सामान्य व्यवहार वे गुरुकुल के सभी कार्यों को करते हुए सीखते थे ।गुरुकुल पद्धति सामान्य जन के लिए ही नहीं, बल्कि राजवंशों के लिए भी होती थी । गुरु और शिक्षा का स्थान उस समय भी उच्च था ।यही कारण है कि जब श्री हरि ने मनुष्य का रूप धारण किया, राम और कृष्ण रूप में, तब उन्होंने भी गुरु से शिक्षा ग्रहण की । जो सर्वज्ञ,सर्वस्व, सर्वोपरि, सनातन हैं । उन्होंने मनुष्य रूप में, गुरु से शिक्षा ग्रहण की । राम के गुरु विश्वामित्र और श्रीकृष्ण के गुरु संदीपनी हुए । उसी समय का श्री विष्णु का यह व्यवहार गुरु के महत्व और जीवन में शिक्षा की उपयोगिता को दर्शाता है । इससे यह तथ्य भी उभर कर सामने आता है कि संसार को कोई संसार का कोई भी प्राणी अगर मनुष्य रूप में जन्म लेता है , तो गुरु और शिक्षा दोनों को अपनाना उसके जीवन का ध्येय और जरूरत है । यह हम इसे इस रूप में भी सोच सकते हैं कि शिक्षा का अधिकार मानव मात्र को ही है।
शायद इसलिए कर्ण ने झूठ बोलकर परशुराम से शिक्षा ग्रहण की । कर्ण के झूठ बोलने का कारण यही था कि परशुराम सिर्फ ब्राह्मणों को ही शिक्षा देते थे । इसीलिए कर्ण ने अपने आपको द्विजपुत्र बताया ।
इसी परंपरा में एकलव्य का नाम भी आता है। जिसने अपने गुरु की सिर्फ प्रतिमा बनाकर शिक्षा ली । क्योंकि गुरु द्रोणाचार्य सिर्फ राजपुत्रों को ही शिक्षा देते थे ।
इन दोनों के जीवन का साक्ष्य गुरु की महत्वता और शिक्षा की उपयोगिता और उच्चता को दर्शाता है ।
अज्ञानतिमिरान्धस्य ज्ञानाञ्जनशलाकया।
चक्षुरुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः।।
अर्थात् अज्ञानरूपी अन्धकार से अन्धे हुए जीव की आँखें जिसने ज्ञानरूपी काजल की श्लाका से खोली हैं, ऐसे श्री सदगुरू को नमन है, प्रणाम है।
आदिकाल से जब हम मध्यकाल की तरफ आते हैं, तो चंद्रगुप्त मौर्य का नाम सबसे पहले आता है, जो साधारण जन था। अपने गुरु चाणक्य की नीतियों से पूरे भारत को अखंड राष्ट्र बनाकर राज करता है ।
मध्यकाल से भी थोड़ा हम आगे भक्ति काल की ओर कदम भरे, तो स्वामी विवेकानंद का नाम आता है जिनके गुरु रामकृष्ण परमहंस, जिन्होंने उन्हें आध्यात्मिक, वेदांतिक,दार्शनिक और वेदा -अध्ययन की शिक्षा दी । इसी कड़ी में सूरदास के गुरु वल्लभाचार्य, मीराबाई के रैदास और तुलसीदास के बाबा नरहरिदास का नाम आता है ।
विद्वत्त्वं दक्षता शीलं सङ्कान्तिरनुशीलनम्।
शिक्षकस्य गुणाः सप्त सचेतस्त्वं प्रसन्नता।।
भावार्थ:
ज्ञानवान, निपुणता, विनम्रता, पुण्यात्मा, मनन चिंतन हमेशा सचेत और प्रसन्न रहना ये साथ शिक्षक के गुण है।
आज के युग में गुरु का स्थान शिक्षक ने ले लिया है । गुरु के कर्तव्य का भी विभाजन हुआ है। आज आधुनिक युग में आध्यात्मिक और धर्म की शिक्षा धार्मिक गुरु और पुस्तकों की शिक्षा व्यवहारिक ज्ञान ,हस्त कौशल की शिक्षा शिक्षक देगा । इसके लिए शिक्षक और शिक्षार्थी का संबंध आत्मीय और पारदर्शी होना चाहिए ।बदलते युग में गुरु और शिक्षा की परिभाषाएं और कर्तव्य बदल रही हैं ,लेकिन एक शाश्वत सत्य है ,जो हमेशा रहेगा कि गुरु के बिना ज्ञान नहीं । वह शिक्षा चाहे आध्यात्मिक हो फिर चाहे पुस्तकीय।
दुग्धेन धेनुः कुसुमेन वल्ली शीलेन भार्या कमलेन तोयम्।
गुरुं विना भाति न चैव शिष्यः शमेन विद्या नगरी जनेन।।
भावार्थ:
जैसे दूध के बिना गाय, फूल के बिना लता, चरित्र के बिना पत्नी, कमल के बिना जल, शांति के बिना विद्या, और लोगों के बिना नगर शोभा नहीं देते, वैसे ही गुरु बिना शिष्य शोभा नहीं देता।——
गुरु और शिष्य संवाद लिखने का विचार मुझे आपसे ही मिला है | तो फिर मानस जैसे अर्जुन को गुरु द्रोणाचार्य मिल ही गए | साधो ! , साधो !