Friday, December 27, 2024

Definition of Act | कर्म की परिभाषा

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कर्म की परिभाषा | कर्म क्या है
Definition of Act | Meaning of Destiny | Karma Ki Paribhasha

“” कर्म “”

“” जीवन जीने हेतु किये जाने वाले क्रियाकलापों को कर्म कहा जाता है। “”

“” सामाजिक, धार्मिक एवं अर्थिक तौर पर किया जाने वाला आचरण जो व्यक्तित्व निर्माण में सहायक सिद्ध हो वे कर्म कहलाते हैं। “”

“” ऐसे आचार विचार जो जीवन जीने के दिशा निर्देश तय करने के साथ स्वयं की जवाबदेहिता भी तय करें तो वे कर्म कहलाते हैं। “”

सामान्य परिप्रेक्ष्य में –

वैसे “” क “” से क्रियाकलाप
“” र् “” से रचना
“” म “” से माध्यम

“” क्रियाकलाप रचने का माध्यम ही कर्म कहलाता है। “”

वैसे “” क “” से क्रमानुसार
“” र् “” से रोपण
“” म “” से मर्म

“” क्रमानुसार रोपण हो जहां मर्म का तो वे कर्म कहलाते हैं। “”

मानस की विचारधारा में –

” आशाओं को पूरा करने हेतु क्रमबद्ध प्रयास भी कर्म कहलाता है। “”

“” पुरुषार्थ को जीवंत रखने हेतु किये जाने वाले यत्न भी कर्म कहलाते हैं। “‘

—- “” स्वावलंबन के चरितार्थ हेतु सार्थक प्रयत्न भी तो कर्म कहलाते हैं। “” —-

“” माना जाता है कि सृष्टि में कर्म प्रधानता ही सर्वव्यापी, सर्वोपरि व सर्वमान्य रही है।

आदिकाल में कर्म के आधार पर वर्ण व्यवस्था की सरंचना भी इसकी पुष्टि करती है।

वर्तमान समय और भविष्य की संकल्पना में व्यक्ति के गुणों के आधार पर ही समाज की पुनर्संरचना सम्भव है। “”

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कर्म की परिभाषा | कर्म क्या है

मानस जिले सिंह
【 यथार्थवादी विचारक】
अनुयायी – मानस पँथ
उद्देश्य – सामाजिक व्यवहारिकता को सरल , स्पष्ट व पारदर्शिता के साथ रखने में अपनी भूमिका निर्वहन करना।

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Amar Pal Singh Brar
Amar Pal Singh Brar
1 year ago

Nice explanation

Sanjay Nimiwal
Sanjay
1 year ago

सुन्दर अभिव्यक्ति 🙏👌🙏

कुछ नहीं बचता इस जहां से जाने के बाद,

बची रहती है तो बस सबके कर्मों की कहानियां।।

SARLA JANGIR
SARLA JANGIR
1 year ago

नदी किनारे बैठा युवक एक, धीर – शांत मुद्रा में,
 जीवन से कलांत हुआ,
 पराजित मन, थकित देह,
 जैसे निर्जन वन में ठूंठ- सा,
 दोनों हाथ धरती पर टेके , शून्य में एकटक देख रहा 
अनजानी सोच में सोच रहा था, कहां हूं मैं? यहां क्या मैं क्या कर रहा?
 भाग्य से जीवन है या, कर्म से बनना है मुझको ,
ऐसी चिंता में अपने -आप  को कोस रहा 
सोच तो सिर्फ सोच होती है, चिंता में घुलता रहा
 दो पहर बीत गए, सोच का अंत ना रहा 
हाथ में लिपटी धूल ने पुकारा, उठ ! मनुष्य, क्यों चिंता से लिपट  रहा ?
पौरुष से जीवन को सींच, बीती में क्यों डूब रहा?
 कर्म पर विश्वास कर तू,  नियति को क्यों कोस रहा? 
माना राह थोड़ी कठिन है, भय से क्यों त्रस्त रहा?
स्मरण कर  इतिहास को अपने,  कर्म से क्यों भाग रहा ?
याद कर मां के दर्द को, पिता के अभिमान को
 याद कर अब मनुज धर्म को, अपने खोए हुए स्वाभिमान को
 तेरे हाथ रंगें हैं मुझमें, समाना है तुझे मेरी गोद में 
उड़ती धूल न बनो तुम , जो आँखों में चुभन करेबवंडर सा जीवन जिओ, सब तुम्हें सम्मान करें
 रेत, गर्द ,धूल, मिट्टी में, अंतर सिर्फ़ स्तर का हैजानो और पहचानों, क्या तुम्हारा कर्म है?
मिट्टी का मिट्टी में मिलना, यही तो सब की नियति में 
तय करेगा तेरा कर्म ही, कैसे तेरा आना होगा
 चाहिए सिर्फ चार कंधे तुझको, या पीछे तेरे जमाना होगा ।- प्रोफेसर सरला जांगिड़

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