Nature is God | मैं खोने से खोजा ईश्वर | Real Life is God
| ईश्वर सिर्फ प्राणित्व में ही निवास |
आज फिर मुझको इन दिनों एक जनून सवार हुआ,
शायद खयाल ही नहीं ख्याली पुलाव के भूत का मुझको भी बुखार हुआ ;
कभी सोचा न था फिर भी मैं असमंजस का शिकार हुआ,
माना बेवकूफ ना कहलाये थे कभी हम फिर भी मैं मूर्खों का सरदार हुआ ;
कभी लगा खुशियों को समेट मुझे कि अब मेरा हरा भरा संसार हुआ,
तो कभी जन्नत पाने की लालसा का भी मैं शिकार हुआ;
अभी जीतने थे कई इम्तिहान मुझे इस वास्ते मेरा दाखिला भी हर बार हुआ,
माना चाहत ही मेरी अधूरी प्यास थी मगर सामना नदिया का हर बार हुआ ;
तलाश करने जो चला फिर इस भूलभुलैया में कहीं मिला खोया हुआ ,
खोने वाला हर बार मिला जो विजेता का ताज भी पहना हुआ ;
लगता है जो उसने पाया उससे ही वह सिरमौर हुआ ,
न जाने फिर भी लेने चला था कुछ और कुछ और का ही पहरेदार हुआ ;
क्या खूब ही ओहदा मिला मुझे इस कदर प्यार का इज़हार हुआ ,
लगा मुझे पहरेदारी का अब मैं ही सच्चा हकदार हुआ ;
ईनाम में नाम ऐसा की खुशियों भरा एक झटके में बहुत बड़ा परिवार भी हुआ,
रहमतों का तो मत ही पूछिये क्योंकि देने वाला तो अब हुक्म का ताबेदार हुआ ;
इसका निवास कहीं पूजा घर तो कहीं प्रार्थना स्थल हुआ ,
आजकल तो हर घर में खूबसूरत कैदखाना बनकर तैयार भी हुआ ;
कमी थी पाखण्ड व अंधविश्वास बढ़ाने की तो फिर खुराफाती दिमाग अब तैयार हुआ,
आलीशान इमारतों बनाने में कहीं मंदिर, कहीं गिरजाघर , कहीं मस्जिद तो कहीं गुरुद्वारे के नाम का इख्तियार हुआ ;
सच में एक पगला है प्राणी जिसे ढूंढने को बेकरार हुआ,
उसके लिए कभी अश्रु बहाये तो कहीं दरबदर होना भी स्वीकार हुआ ;
फिर क्यों न समझ पाये जिसने कुछ दूरी से सुना है उसी ने हजारों मील से भी है सुना हुआ ,
आज फिर क्यों इतने तमझामों से इंसान है अब भी घिरा हुआ ;
जब जाना उसका सिर्फ निश्छलता, कर्म व प्रेम में सदा ही वास हुआ,
तो फिर दिखावे व प्रतिस्पर्धा के चक्रव्यूह से निकलना भी स्वीकार हुआ ;
मानवीय मूल्यों के प्रति संवेदनशील होते हुए अब कर्म को निभाना भी स्वीकार हुआ,
तभी हर घट वासी निराकार स्वंयम्भू को निश्छल प्राणित्व में ही पाया बसा हुआ ।
“” प्रकृति ही ईश्वर है, उसकी सर्वश्रेष्ठ व सुंदर रचना प्राण वायु व भोजन प्रदाता “” वृक्ष “‘ ही तो है। “”
“” निश्छल प्राणित्व “” वृक्ष “” ही तो है। हमारे पूर्वज ऋषि मुनियों को वृक्ष के नीचे ज्ञान की प्राप्ति हुई। “”
“” अतः पत्थर की मूर्ति के बजाय पेड़ से प्रेम करो और उसकी स्थापना करो। “”
मैं खोने से खोजा ईश्वर | Nature is God
मानस जिले सिंह
【यथार्थवादी विचारक 】
अनुयायी – मानस पंथ
उद्देश्य – मानवीय मूल्यों की स्थापना हेतु प्रकृति के नियमों का यथार्थ प्रस्तुतीकरण में संकल्पबद्ध योगदान देना
Nice line
ऐसी kavita to koi शांत इन्सान hi likh sakta hai
ईश्वर की खोज……
सच्चा प्रेम ईश्वर की तरह है,
चर्चा उसकी सब करते हैं,,,
पर देखा किसी ने नहीं ।।।
Nice thought
The poem is reality to the nature
Great sir
शास्त्रों में कहा गया है कि सौ पुत्रों के बराबर एक वृक्ष को बताया गया है । ऐसा क्यों कहा गया है ? वृक्ष को ही ईश्वर रूप में क्यों स्वीकार किया गया क्योंकि वह प्रदाता है । प्रदाता का अर्थ -देने की प्रवृत्ति । उसमें लेने की संभावना और आकांक्षा नहीं है । बचपन पर उसकी डालियों पर झूलना ,बड़े होने घर के निर्माण के लिए उसकी लकड़ी को काटना , पेट की भूख शांत करने के लिए फल खाना और अंत समय में हम अंतिम सांस ले रहे हैं, तो उसी से पालकी तैयार करना । किसी को भी निस्वार्थ भाव से कुछ देने का भाव महान बना देता है। वृक्षों ने हमें बहुत कुछ दिया है । वे सजीव होते हुए भी उनमें प्रतिकार की भावना नहीं है ।जानवर भी देने का भाव रखते हैं, लेकिन कभी-कभी वे हिंसक रूप धारण कर लेते हैं ।मनुष्य बुद्धिशाली जीव है। उसको प्रकृति ने बहुत कुछ सिखाया है, लेकिन निस्वार्थ भाव से कुछ देने की भावना उसे वृक्षों से सीखनी पड़ेगी। – प्रोफेसर सरला जांगिड़
Such A Nice view with realistic and grassroots. It’s inspire to human for “”save the nature””.
‘माला फेरत जुग मुआ, गया न मन का फेर ।
ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय ।।’
इन पंक्तियों में कबीर दास जी ने जिस प्रेम की बात की है । वह मानव का मानव के प्रति प्रेम है। इस प्रेम में निस्वार्थ भावना, त्याग,सहनशीलता, समर्पण इत्यादि हैं ।कबीर जी ने समाज की कुरीतियों को दूर करने के लिए अपने लेखन को माध्यम बनाया वह मनुष्य मात्र के प्रति प्रेम को दर्शाता है, ताकि मनुष्य धार्मिक अंधविश्वासों और सामाजिक कुरीतियों से ऊपर उठकर मानव मात्र के कल्याण के लिए प्रयास कर सकें । जिससे समाज में स्वस्थ वातावरण का निर्माण हो सके । स्वस्थ समाज ही हमेशा उन्नति की ओर अग्रसर रहता है । और समाज की महत्वपूर्ण इकाई व्यक्ति है। व्यक्ति की कल्याण में समाज का कल्याण है या नहीं, वह उसकी निश्चल भावना पर निर्भर करता है ।लेकिन समाज के कल्याण में व्यक्ति का कल्याण निहित है।- प्रोफेसर सरला जांगिड़
बहुत ही सुंदर शब्दों की गई विवेचना। यह सारगर्भित भी है और ज्ञानवर्धक भी
हे प्रभु ! वर नहीं बल दो
लहरों के उच्च वेग से ,
अशांत, अधीर, उफनते समुद्र से,
पार नहीं पर दो,
हे प्रभु ! वर नहीं बल दो।
कठिनाइयों के मकड़जाल से,
शंकित ह्रदय की मुख-व्याल से,
शांति नहीं शम दो ।
हे प्रभु! वर नहीं बल दो।
संघर्षों के उतार-चढ़ाव से,
घटते बढ़ते इस चक्र से,
मांग नहीं मग दो ,
हे प्रभु! वर नहीं बल दो ।
भावों के अथाह समुद्र से,
चंचल मन के सभी रसों से,
मौन नहीं भाषा दो ,
हे प्रभु ! वर नहीं बल दो।
सुख-दुख की परिभाषा से,
मान -अपमान की इस रेखा से,
आसक्ति नहीं विरक्ति दो,
हे प्रभु! वर नहीं बल दो।
संसार के जीवन -चक्र से ,
जन्म -मरण के इस वक्र से ,
लीन नहीं विलीन कर दो ,
हे प्रभु ! वर नहीं बल दो।-प्रोफेसर सरला जांगिड़