“अनासक्ति” | “प्रेम पथ का पाँचवाँ पायदान”
Meaning of Detachment | Meaning of Apatheia | Meaning of Acedia
“अनासक्ति”
• “अन-” (नकारात्मक उपसर्ग, जिसका अर्थ है “नहीं” या “अभाव”)
• “आसक्ति” (लगाव, मोह, जुड़ाव)
अनासक्ति का शाब्दिक अर्थ है – “आसक्ति या मोह का अभाव।” यह एक आध्यात्मिक और दार्शनिक स्थिति है जिसमें व्यक्ति किसी वस्तु, व्यक्ति, विचार, या भावना से मानसिक या भावनात्मक रूप से बंधा नहीं होता, किंतु फिर भी अपने कर्तव्यों का पूर्ण समर्पण और प्रेम के साथ निर्वाह करता है।
अन्य शाब्दिक अर्थ है “आसक्ति का अभाव”। गीता में श्रीकृष्ण ने इसे निष्काम कर्मयोग से जोड़ा है, जहाँ व्यक्ति बिना किसी फल की आसक्ति के कार्य करता है।
प्रेम ईश्वर तक पहुंचने का सबसे सुंदर मार्ग है, लेकिन यह प्रेम सांसारिक मोह और स्वार्थ से रहित होना चाहिए। प्रेम को इश्क़े-मजाजी (सांसारिक प्रेम) और इश्क़े-हकीकी (परम प्रेम) में विभाजित कर सकते हैं।
प्रथम दृष्टि में, प्रेम में जुड़ाव होता है, जबकि अनासक्ति उसमें विरक्ति लाने का प्रतीत होता है। किंतु उच्च आध्यात्मिक दृष्टि से देखा जाए, तो सच्चा प्रेम अनासक्ति में ही निहित है। जब प्रेम शुद्ध, निस्वार्थ और बिना स्वामित्व की भावना के होता है, तब वह वास्तविक प्रेम होता है। यह प्रेम मोह और आसक्ति से परे होता है, जिसमें व्यक्ति बिना किसी स्वार्थ या अधिकार की भावना के प्रेम करता है।
सूफी दर्शन के अनुसार, प्रेम वह शक्ति है जो आत्मा को ईश्वर की ओर ले जाती है, और जब प्रेम अनासक्ति की अवस्था प्राप्त कर लेता है, तब वह पूर्ण भक्ति और दिव्यता में परिवर्तित हो जाता है।
कुछेक विचारणीय पहलू:
• रवींद्रनाथ ठाकुर ने अपने साहित्य में प्रेम की उच्चतम अवस्था को अनासक्ति से जोड़ा है।
• महात्मा गांधी ने “अनासक्ति योग” को अपने जीवन का आधार माना और इसे गीता का सर्वोच्च संदेश बताया।
• शंकराचार्य ने अद्वैतवाद में अनासक्ति को ब्रह्मज्ञान की ओर ले जाने वाला मार्ग बताया है।
रचनाएँ –
“जिस प्रेम में स्वामित्व की चाह हो, वह प्रेम नहीं, वह सौदा है। प्रेम वह है जो स्वतंत्रता देता है, न कि बंधन।”
रूमी (जलालुद्दीन रूमी) का प्रेम अनासक्ति में परिवर्तित होकर समर्पण और भक्ति बन जाता है। उनकी मसनवी में प्रेम और अनासक्ति का सुंदर वर्णन मिलता है।
“आसक्ति ही सभी दुखों का मूल है। जब प्रेम स्वार्थ रहित होता है, तभी वह सच्चा प्रेम बनता है।”
गौतम बुद्ध
“जो प्रेम करता है, उसे पकड़ने की आवश्यकता नहीं होती। अनासक्ति से ही प्रेम फलता-फूलता है।”
लाओ त्ज़ु (Lao Tzu)
“प्रेम स्वच्छंद होना चाहिए, न कि बंधन। जब प्रेम में आसक्ति होती है, तब वह गुलामी बन जाता है।”
स्वामी विवेकानंद
“अनासक्ति योग ही गीता का सर्वोच्च संदेश है। व्यक्ति को अपने कर्तव्यों का पालन करना चाहिए, लेकिन फल की इच्छा त्याग कर।”
महात्मा गांधी
“प्रेम मुक्त करता है, जबकि आसक्ति बंधन में डालती है।”
रवींद्रनाथ ठाकुर
महान संतों एवं विचारकों की दृष्टि में अनासक्ति प्रेम का उच्चतम रूप है। जब प्रेम अनासक्त हो जाता है, तब वह आत्मा को ईश्वर से जोड़ता है और व्यक्ति को मुक्त कर देता है। यह न केवल आध्यात्मिक उन्नति की ओर ले जाती है बल्कि जीवन में संतुलन और शांति भी प्रदान करती है।
यही प्रेम का सर्वोच्च रूप है – एक ऐसा प्रेम, जो केवल देता है बिना किसी अपेक्षा के।
“कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।”
भगवद गीता
(प्राणी को सिर्फ कर्म करने का ही अधिकार है, उसे फल की चिंता नहीं करनी चाहिए।)
सारांश में –
“जो प्रेम करता है, उसे पाने की चिंता नहीं होती, क्योंकि प्रेम में खो जाने का आनंद ही सर्वोपरि है।”
यह अनासक्ति का प्रत्यक्ष उदाहरण है, जहाँ प्रेम में पाने या खोने का कोई अर्थ नहीं रह जाता।
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“अनासक्ति” | “प्रेम पथ का पाँचवाँ पायदान”
विचारानुरागी एवं पथ अनुगामी –
मानस जिले सिंह
【यथार्थवादी विचारक】
अनुयायी – मानस पंथ
शिष्य – डॉ औतार लाल मीणा
विद्यार्थी – शोधार्थी, दर्शनशास्त्र विभाग 【 JNVU, Jodhpur 】
उद्देश्य – मानवीय मूल्यों को जगत के केंद्र में रखते हुऐ शिक्षा, समानता व स्वावलंबन का प्रचार प्रसार में अपना योगदान देने का प्रयास।
बेबसाइट- www.realisticthinker.com