Voice for Victim | महिलाओं का दर्द | Women Pain
Raise your Voice for Victim Lady | महिलाओं का दर्द मेरी कलम से
निम्नलिखित बिंदुओं के तहत उनके हितों की तरफ आपका सबका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूँ।
1. राजनैतिक प्रतिनिधित्व में आरक्षण 49% महिला व 1% किन्नर 【 राज्य विधानसभा एवं संसद (लोकसभा व राज्य सभा सदस्यता)】 प्रदान करने बाबत।
2. आर्थिक स्थिति सुधार हेतु सरकारी नौकरी में 49% महिला आरक्षण व 1% किन्नर को सभी कार्मिक वर्ग में सुरक्षित करने बाबत।
3. सामाजिक न्याय में महिला की शादी की कम से कम उम्र 21 करने व शादी से पूर्व 【व्यावसायिक प्रशिक्षण या हस्तकला कला 】 शिक्षा को अनिवार्य बनाने बाबत।
आदरणीय बन्धुओं ,
मेरी एक नज़र में
सामाजिकता के मोह में जकड़ी निःसहाय,
अंधविश्वास के गिरफ्त में फंसी अज्ञानी,
अज्ञानता के अंधकार में कैद होते हुए भी सुरक्षा के भ्रमजाल की शिकार दुर्गा ,
लक्ष्मी अवतार के स्वप्न देख कर शारीरिक व मानसिक शोषण की अबला,
अत्याचार, बलात्कार, तेजाबी हमलों का तो कभी जिंदा जलने वाली निर्भया,
हद से ज्यादा असहनीय दर्द पर आत्मदाह की ओर अग्रसरित महिलाओं के दुःखान्त वृत्तान्त
आज भी आजाद भारत में लोकतांत्रिक व्यवस्था पर काले धब्बों के रूप देखा जा सकता है।
ऐसी अनेकों पुनरावृत्ति होती दर्दनाक व दुर्दान्त घटनाओं दुबारा ना घटे इसके लिए संजीदगी से प्रयास होने चाहिए थे परन्तु राजनैतिक इच्छा शक्ति की कमी के चलते ज्यादा सुधार हो नहीं पाये हैं।
इसको प्रामाणिक करते हुए कुछ संक्षेप में ऐतिहासिक तथ्यों के तहत
कुछ प्रमुख बिन्दु –
1. सती प्रथा –
सती प्रथा का चलन कई गुना बढ़ा।
यह क्रूर व्यवस्था पौराणिक कथाओं में विभिन्न रूपों में दर्ज है।
परन्तु आधुनिक युग भी इस अमानवीय, क्रूर प्रथा का साक्षी रहा है।
भला हो 1829 में लार्ड विलयम बेंटिक की मदद से राजा राम मोहन राय ने कानून बनवाया।
परन्तु हमारे निर्लज्ज व हिंसक समाज ने देश की आजादी के बाद 1987 में भी रूपकंवर जैसी महिला को इस प्रथा का शिकार बनाया।
नवम्बर 2020 में लड़की द्वारा छेड़छाड़ के विरोध में बिहार जिंदा जलने का साक्षी बना।
इसी तरह मार्च 2021 अरनिया मध्यप्रदेश , गोंडा उत्तरप्रदेश , हनुमानगढ़ राजस्थान इत्यादि भी सुर्खियों में बने रहे।
कोई भी राज्य देश का अछूता नहीं रहा है ऐसी दुखद घटना के साक्षी बनने से। इनको सती प्रथा का विकृत रूप कहा जाये तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी।
2. दहेज प्रथा –
दहेज निषेध अधिनियम, 1961 भी आजादी के 14 साल बाद बना। जिसमें भी सजा या जुर्माना न के बराबर है। दहेज की बलि चढ़ती लाखों बेटियां इसकी गवाह है। हर रोज यह समाज के क्रूर चेहरे को उजागर करता है।
हजारों बार कई महिलाओं को जिंदा तक जला दिया जाता है। यह भी सती प्रथा का ही दूसरा रूप ही है।
अधिकतर महिलाएं प्रताड़ना से तंग आकर आत्मदाह करने लगती हैं। अब ऐसी घटनाओं का वर्णन भी मानवीय संवेदनाओं को पीड़ा देता।
3. डाकन प्रथा –
डाकन प्रथा ये तांत्रिक क्रियाओं व वैदिक ज्योतिष की उपज का क्रूर रूप था।
जिसका 1853 में राजस्थान के महाराजा स्वरूप सिंह ने अमानवीय कृत्य मान इस पर कानून बनाया।
परन्तु नवम्बर 2020 मध्यप्रदेश में 65 वर्षीय बुजुर्ग महिला इसकी शिकार हुई। ऐसी अनेकों धटनाओं का देश साक्षी बना। जो हमारे बोधिसत्व पर प्रश्न चिन्ह लगाता है।
4. एकाकी जीने की जीवन पर्यन्त की सामाजिक बाध्यता –
विधवा विवाह को कानूनी मान्यता भी 1856 में hindu widow’s remarriage act के तहत मिली।
इसका असलियत आज भी आंकड़ों में दर्ज है।
5. बाल विवाह –
बाल विवाह पर भी 1872 में नेटिव मैरिज एक्ट लाया गया पर बेअसर रहा।
1891 में एज ऑफ कन्सेट के तहत लड़कियों की शादी की उम्र 12 वर्ष रखी गई।
Child marriage restriction act 1929 में लड़कियों की शादी की उम्र 14 वर्ष की गई।
देश की आजादी के 7 साल बाद 1954 में लड़कियों की उम्र 18 वर्ष की गई।
ये सब हमारी संस्कृति की क्रूरता, पिछड़ेपन व दकियानूसी सोच को परलिक्षित करती रही है और हमारा कानून भी गूंगा, बहरा व अंधा बना हुआ रहा।
6. बालिका भ्रूण हत्या –
बालिका भ्रूण हत्या कानून 1795, 1804 में बंगाल में अवैध घोषित। इसके उपरांत 1870 में अधिनियम ।
बड़े शर्म की बात देश की आजादी 47 वर्ष बाद कन्या भ्रूण हत्या पर कानून 1994 में बना। यह भी लोकतांत्रिक समाज की संजीदगी व गैरजिम्मेदाराना व्यवहार को दर्शाता है।
7. अशिक्षा का दंश –
स्त्री शिक्षा का अधिकार की स्वीकृति 1854 में दी गई।
1849 में पहला महिला बिथुने कॉलेज जॉन एलिपोट के खोला था।
यद्यपि स्त्री समाज के लिए सावित्री बाई फुले ने अथक प्रयास किये।
उसके उपरांत आज शिक्षा में महिलाओं का स्तर देखिये। आँकड़े साक्षी बने हुए हैं।
8. लिंगात्मक असमानता परिलक्षित करती सामाजिक व्यवस्था-
लिंग आधार में समानता का मौलिक अधिकार भी महिलाओं से सविधान निर्माताओं ने छिन लिया।
वैवाहिक जीवन में महिलाओं को गर्भधारण व गर्भपात के साथ वैवाहिक बलात्कार की शिकायत का अधिकार नहीं है। इससे महिला को नरकीय जीवन जीने के लिए मजबूर होना पड़ा है।
बालिकाओं के बलात्कार के केस में कई सालों की ज़िरह के बाद भी न्याय नहीं मिलता। तेज़ाब जैसी अमानवीय, नृशंसता के साथ कि घटनाएं हृदय को झकझोरने के काफी हैं।
फिर भी सामान्यतया लोग समाज में महिलाओं के हक में खड़े कही दिखाई नहीं देते।
घूंघट रिवाज, पर्दा प्रथा या बुर्का व्यवस्था महिलाओं की आजादी को छिनते मानसिक अत्याचार व सुरक्षात्मक कवच की मीठी वाणी में कैद करती जिंदगी उनके ताजा हालिया उदाहरण मौजूद हैं।
9. ब्रेस्ट टैक्स –
इसका एक उदाहरण जो हमारे समाज के काले धब्बे में दर्ज रहा है उस पर ध्यान दिलाना चाहता हूं।
केरल में त्रावणकोर रजवाड़ा था।। जिसमें एजवा जाति जो निम्न जातियों में आती है और नादर समुदाय की महिलाओं पर ब्रेस्ट टैक्स लगाया जाता था।
यह टैक्स उच्च वर्ग के सम्मान में इन जाति की महिलाओं को अपनी छाती को कपड़े से ढकने का अधिकार नहीं था।
यदि उनको कपड़े से ढकना होता तो उनको टैक्स देना पड़ता था।
एजवा जाति की नांगेली ने इसका विशेष किया।
परिणामस्वरूप उसे अपने स्तन काटकर टैक्स अधिकारी को थाल में परोस दिये और अत्यधिक रक्त प्रवाह से उसकी जान चली गई।
इस घटना के बाद इस समाज के आक्रोश को ठंडा करने के लिए 1814 में इस जाति को छूट दी गई।
बद में 1859 में ऐच्छिक तौर पर नादर समुदाय को छूट दी।
1924 में पूर्णतया कानून से रोक लगी।
बड़े ही दुःख के साथ कहना व लिखना पड़ रहा है कि वो विकृत मानसिकता के घिनौने कृत्य आज भी घटित हो रहे हैं। महिलाओं व बालिकाओं को नग्न अवस्थाओं में सामुहिक दण्ड दिये जा रहे हैं।
10. राजनैतिक प्रतिनिधित्व हाशिये पर –
महिलाओं के लिये प्रतिनिधित्व का अधिकार 1974 में चर्चा में आया।
1993 यानि आजादी के 46 साल बाद भी नगरपालिका, पंचायतों में सिर्फ 33 ℅ मिला। जहां 50℅ समानता के अंतर्गत आता है। हालांकि कुछ राज्यों ने पंचायत व नगरपालिका के चुनाव में महिला आरक्षण 50% लागू किया है।
सरकारी नोकरी में महिलाओं की हिस्सेदारी बेमुश्किल 10% रही है।
विधानसभा या संसद में प्रतिनिधित्व की रक्षा का कोई कानून अभी नहीं बना है। आधा अधूरा राज्य सभा से पास 2010 से संसद के निचले सदन में लंबित पड़ा है। आज विशाल बहुमत होने के उपरांत भी यह कानून नहीं बन सका यह बड़े ही हैरत में डालता है।
11. घरेलू हिंसा –
उपरोक्त कारणों को छोड़ भी दें तो भी अधिकांश महिलाओं यानि चाहे वह किसी भी वर्ग में ही क्यों न हो। उसको कभी न कभी घरेलू हिंसा का दंश झेलना जरूर पड़ता है।
ऐसे में महिलाओं के दयनीय , पिछड़ेपन की स्थिति को आसानी से समझा जा सकता है।
जहां स्वावलंबी है वहां अपनी बात को रख तो सकती हैं पर सामाजिक माहौल में पिछड़ेपन के कारण वह असहाय हो जाती है। इस पर निरक्षरता या निर्बलता व निर्भरता तो न्याय की उम्मीद भी खत्म कर देती है।
आज भी स्त्री के पिछड़ेपन, दयनीय , बर्बरता की स्थिति के साक्ष्य को परलिक्षित करने में सहायक कुछ महत्वपूर्ण बिंदु —
1. अशिक्षा की प्रधानता।
2. प्रशासनिक सेवा में भागीदारी न के बराबर होना।
3. राजनैतिक प्रतिनिधित्व की कमी होने से हित सरंक्षित कानूनों का वर्षों से लंबित पड़े रहना।
4.धर्मान्धता के चलते सिर्फ सामाजिक प्रतीकात्मक स्थान।
5. समान अवसरों की यथोचित अनुलब्धता।
6. समाज में पुरुषों के आधिपत्य को मौन स्वीकृति की बहुलता।
7. स्त्री को यौन उपभोग वस्तु मानने की संकीर्ण सोच का विस्तार होना।
8. सामाजिक व आर्थिक सुरक्षात्मक पहलू में पुरूष के प्रति निर्भरता।
9. दाम्पत्य जीवन के निर्वहन में सम्पूर्ण जिम्मेदारी कन्धों पर लादती भावुक व वंशानुगत सोच।
10. शारीरिक दुर्बलता ,असुरक्षा व हिंसा के प्रति मूक मनोभाव से स्वीकार्यता।
आज भी लोकतांत्रिक राष्ट्र में सदियों से हाशिये में रहे इस वर्ग की अनदेखी कर एक आदर्श, सुदृढ़ व सुसंस्कृत समाज के निर्माण की कल्पना बेमानी साबित होगी ।
“” अधिकारों की कानूनी मान्यता से ही समाज में परिवर्तन सम्भव है। “”
मेरी एक नजर में
“” एक और निर्भया , आयशा ,पूनम, सायरा बानो नहीं बनने देना चाहिये ।””
अनेकों सुधारों में सर्वप्रथम कुछ अधिकार महिलाओं की स्थिति में सकारात्मक बदलाव ला सकते हैं।
जिन्हें निम्न बिंदुओं के अंतर्गत समझा जा सकता है। –
1. आर्थिक सुधार के तहत महिलाओं के लिए अधिकार –
A . शिक्षा व्यवस्था में तकनीकी शिक्षा को कानूनी जामा पहनाना –
शिक्षा व्यवस्था में तकनीकी शिक्षा 【 हस्तकला से लेकर व्यावसायिक शिक्षा 】 को प्राथमिकी स्तर पर दर्ज करवाना।
यह सवैधानिक नियम बनाना चाहिए ताकि बिना तकनीकी शिक्षा के शादी ग़ैरकानूनी मानी जायेगी।
यह इस वर्ग ही नहीं सामाजिक सुधार का एक निश्चित ही अच्छा प्रयास साबित होगा।
B. सरकारी नौकरी में 49% महिलाओं व 1% किन्नरों के लिए आरक्षण सुनिश्चित हो। यानि सामान्य व आरक्षित वर्ग के सीट में महिलाओं व किन्नरों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित हो।
C. गैर व्यवसायिक महिलाओं यानि घरेलू महिलाओं की निश्चित 【मासिक विपत्ति काल यानि पेंशन राशि】 जेब खर्च उनके बचत खाते में जमा हो। जिससे उनके आज व बुढ़ापे में सम्मान की रक्षा का एक सफल प्रयास हो सके।
2. सामाजिक समानता के तहत दिये जाने वाले अधिकार –
A. सामाजिक व्यवस्था में महिलाओं की स्थिति सुदृढ़ करने के लिए पिता के साथ माता के नाम को कागजी कार्यवाही में कानूनी रूप में मान्यता प्रदान करना।
B. महिला की शादी की क़ानूनी उम्र कम से कम 21 वर्ष तय हो। जिससे स्वावलंबन का मार्ग प्रशस्त किया जा सके।
C. तलाक जैसी या एकल परिवार में महिला के निर्णय को सम्मान का अधिकार मिले।
D. NCC या सैनिक शिक्षा या SELF DIFFENCE TRANING को शिक्षा की तरह अनिवार्य जीवन का हिस्सा बनाना।
क्योंकि शारीरिक दक्षता आत्मरक्षा के लिए बहुत उपयोगी साबित होगा।
3. राजनैतिक समानता के तहत दिये जाने वाले अधिकार –
राजनैतिक प्रतिनिधित्व के सभी स्तर के चुनाव में महिलाओं का 49% आरक्षण व 1% किन्नरों को सुनिश्चित कर उनको आगे बढ़ने का मौका दिया जाना चाहिए।
यह हम बहुत से देशों से सीख सकते हैं। यह सुधार महिला अपराधों में कमी लाने में सहायक सिद्ध होगा।
4. धार्मिक समानता दर्शाने के तहत दिये जाने वाले सहायक अधिकार –
महिला को किसी धर्म को चुनने व मानने का अधिकार होना चाहिए। उसमें पिता या पति के तरफ़ से कानूनी बाध्यता खत्म होनी चाहिए।
महिला दिवस पर इस वर्ग को न्याय दिलवाकर इस महिलाओं की कुरीतियों व रूढ़िवादी बेड़ियों से मुक्ति प्रदान करने में अपनी अपनी भूमिका का निर्वहन करें।
सधन्यवाद।
Voice for Victim | महिलाओं का दर्द | Women Pain
मानस जिले सिंह
【यथार्थवादी विचारक】
अनुयायी – मानस पँथ
उद्देश्य – सामाजिक न्याय , समानता व स्वावलंबन में अपनी आवाज व कर्म में सत्यनिष्ठा प्रस्तुत करना
बहुत ही मार्मिक विषय है महोदय, इस विषय पर सबको मिलकर प्रयास करने होंगे जिससे इस समाज मे महिलाओ को उचित सम्मान मिल सके उनकी उन्नति हो सके ओर इस समाज मे उन्हे समानता का अधिकार मिल सके / आपने महिला दिवस के शुभ अवसर पर ये आवाज उठाकर महिलावर्ग का बहुत सम्मान किया है /
बहुत बहुत आभार।
nice and great initiative
Great Thought 🙏🙏
मुस्कुरा कर, दर्द भुलाकर,,
रिश्तो में बंद थी दुनिया सारी ।।
हर पल को रोशन करने वाली,,
वो शक्ति है एक नारी ।।।
बहुत सारे भाव उठे थे ,
शब्दों में उलझे हुए थे,
रिश्तो में गुलझे हुए थे ,
पर सुलझ ना पाए ।
कभी सोचूं तो राम राज्य में भी सीता को सम्मान ना मिला ,
द्वापर में राधा को पत्नी का अधिकार न मिला,
सीता पतिव्रता वनवासी बनी,
राधा जीवन भर प्रेमिका रही ,
क्या मिला इन रिश्तो से ,प्रभु ने औरतों को क्यों बांध दिया ।
जरूरत नहीं थी जंजीरों की , बेड़ियों को रिश्तो का नाम दिया,
वह जो अलौकिक होकर भी लौकिक है जग में,
उसने ऐसा कुछ विधान किया।
परी नाजुक से मां के आंचल में आई,
मां ने दुलार दिया,
पर! उसको यह याद रहा ,
जाना है तुझे !
प्यार दिया ,
दुलार किया ,
पर अधिकारों का संस्कार न दिया ।
भेज दिया अनजाने के, क्या यह तय किया?
कैसे रखेगा? क्या करेगा?
खिलौना जानेगा या इंसान उसे ,
दोनों को परीक्षा तो देनी होगी,
दोनों को भावहीन मुद्रा में मौन तो रखना होगा,
यह मौन अंतिम विराम ना बन जाए,
चिंतन तो करना होगा ।
चिंतन में चिता से खुलकर जीवन- ज्योत जगाई रखती है ,
अंध हीन संस्कारों का वह बोझिल भार उठाए रखती है।
नए युग की पदार्पण में ,जरूरत है कुछ नया करने की,
बुद्धि,शक्ति और सौंदर्य के साथ ,उसे आत्म दीप जलाना होगा
अपने अस्तित्व के बल से, नया संसार रचाना होगा ।